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मनगार
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गृत हो सकती है। क्योंकि इसके तेजके सामने नारायण प्रतिनारायण चक्रवर्ती और प्रतीन्द्रादिककी तो बात ही क्या, अखर्व-बढते हुए और उन्नत तेज तथा उत्साहके धारण करनेवाले इंद्र अथवा अहमिन्द्रादिक भी खडे नहीं रह सकते, नत हो जाते हैं। और इसीके निमित्तसे आत्माका वास्तविक ज्ञानस्वरूप आविर्भूत होता है। अतएव हे मुमुक्षो ! इस तरहके ब्रह्मचर्यका तुझको देव गुरु और सधर्माकी साक्षीसे ग्रहण कर यावजीवन पालन करना चाहिये । और उसके विरोधी स्त्रीविषयाभिलाषा प्रभृति अब्रह्म भावोंका सर्वथा त्याग करना चाहिये। .
_ ब्रह्मचर्यके स्वरूपका निरूपण कर उसका पालन करनेवालोंको जो परमानन्द प्राप्त होता है उसको बताते हैं:
या ब्रह्माणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुचः प्रवृत्तिः । तद्ब्रह्मचर्य व्रतसार्वभौमं ये पान्ति ते यान्ति परं प्रमोदम् ॥६॥
बध्याय
दृष्ट श्रुत और अनुभूत इन तीनो ही प्रकारके भोगोंकी आकांक्षारूप निदान तथा और भी जो रागादि रूप वैभाविक मल-दोष हैं उन सबसे रहित होनेके कारण यह आत्मा शुद्ध और समस्त पदार्थों का युगपत् साक्षात्कार-प्रत्यक्ष अवलोकन करनेमें समर्थ है इसलिये बुद्ध है । ऐसे शुद्ध और बुद्ध निजात्मा-अपने चित्स्वरूप ब्रह्ममें पर द्रव्योंका त्याग करनेवाले-अपने और परके शरीरसे भी ममत्वरहित व्यक्तिकी जो प्रवृत्ति-अमतिहत परिणतिरूप चर्या होती है उसीको ब्रह्मचर्य कहते हैं। क्योंकि " ब्रह्ममें चयों सो ब्रह्मचर्य" ऐसा ही निरुक्तिपूर्व अर्थ वैयाकरण भी करते हैं । यह व्रत समस्त व्रतोंमें सार्वभौमके समान है। क्योंकि समस्त भूमिके अधिपति चक्रवर्तीको सार्वभौम कहते हैं। जिस प्रकार पृथ्वीके सभी राजा मुकुटबद्धतक भी चक्रवर्तीके ही अधीन रहा करते हैं उसी प्रकार शेष सभी व्रतोंकी वृत्ति-प्रवृत्ति ब्रह्मचर्य के ही अधीन हो सकती है । इसके विना कोई व्रत पल नहीं सकता । अत एव जो मुमुक्षु इस ब्रह्मचर्यका पालन-रक्षण करते हैं-उसको अतीचारोंसे दूषित नहीं होने देते वे ही पुरुष परम प्रमोद-सर्वोत्कृष्ट आनन्द--मोक्षसुखको प्राप्त किया करते हैं।