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बनगार
धर्म
अतएव अशुद्ध चिद्विवर्तका ही अनुभवन करनेवाले इस समस्त जगत्में-बहिरात्म प्राणिगणोंमें जिसकी भुजाएं अपने दौर्जन्य-अपकारकर्तृत्वकी गर्जना कर रही हैं-इस संसारमें हम ही प्राणियोंका सबसे अधिक अपकार करने में समर्थ हैं ऐसा उद्घोषण करनेवाले-तीन जगत्के विजेता लोभ कबायको-गृद्धिरूप परिणामको जीत कर जो तपस्वी दसरोंके धनको शकृत-विष्टाके समान अथवा ऐसा समझते हैं मानों यह बडे भारी पापरूपी विषका सोत-नदीका पूर है। और इसीलिये जो अपने महत्त्वसे आकाशके भी महत्वका लोप करते हुए लक्ष्मियों-संपदाओंको दासी-किंकरी बनालेते हैं। ऐसे संतोषरूपी रसायनका ही सेवन करनेमें निरन्तर तत्पर रहनेवाले साधुगण सदा जीवित रहें-दया दम त्याग समाधिरूप पाणोंको निरंतर धारण करें।
भावार्थ-यद्यपि लोभकषाय जगद्विजयी है और उसने इस जगत्को-शुद्धात्मस्वरूपके अनुभवनसे दूर कर रक्खा है. फिर भी वह संतोषके द्वारा जीता जा सकता है । यथाप्राप्त योग्य वस्तुके उपयोगमें ही अपना समीचीन हित समझनेको संतोष कहते हैं । यह संतोष रसायनके समान है। क्योंकि इसका सेवन दीर्घायुरादिक गुणोंकी प्राप्तिका कारण है। इसीके निमित्तसे साधु पुरुष दूसरोंके धनमें निरीह होकर-अस्तेय व्रतका दृढताके साथ पालन करके आकाशसे भी अधिक महत्ता प्राप्त करलेते हैं। क्योंकि जो दूसरोंके धनमें स्पृहा नहीं रखता उससे भी अधिक महान् और कौन हो सकता है। ऐसे पुरुषकी समस्त संपत्तियां दासी बनजाती हैं और वह दया दम त्यागादिकरूप प्राणोंको धारण कर चिरजीवी हो, परम पदको प्राप्त करलेता है।
इस प्रकार अचौर्य महाव्रतका व्याख्यान पूर्ण करके अब क्रमप्राप्त ब्रह्मचर्य महाव्रतका पेंतालीस पघोंमें व्याख्यान करना चाहते हैं। किंतु मुमुक्षुओंको उसका पालन करनेकेलिये विशेष रुचि उत्पन्न हो इसलिये पहले उसके माहात्म्यका वर्णन करके नित्य ही उसका पालन करने में उद्यम करनेकी प्रेरणा करते हैं
प्रादुःषन्ति यतः फलन्निजगुणाः सर्वेप्यखौंजसो यत्प्रव्हीकुरुते चकास्ति च यतस्तद्राह्ममुच्चैर्महः ।
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अध्याय
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