________________
किं किं न कर्म हतशर्म धनाय कुर्यात, क क स्त्रियामपि जनो न मनो विकुर्यात् ॥ ६८ ॥
बनगार
३६६ ।
जो किंपाकफलकी तरह क्षणमात्रतक ही मधुर मालूम पडता है--जबतक उसका सेवन किया जाय या जिस समय में सेवन किया जारहा है तभी तक वह सुखावह मालूम पडता है! किन्तु परिणाममें जो अत्यन्त कटु है-अंतमें अथवा रसान्तरका अनुभव करते समय जो दुःखावह ही है। ऐसे निघुवन मैथुनकर्ममें परतन्त्रताके निमित्त भूतादिकके समान मदन-कामदेवसे प्रेरित हुआ यह प्राणी धनका उपार्जन करनेका ऐसा कौनसा कर्म है कि जिसको यह नहीं करता । तथा ऐसी कौनसी स्त्री है सि जिसमें यह अपने मनको दुरभिप्रायोंके कारण विकृत नहीं बनालेता।
भावार्थ- मदनके अधीन हुआ दीन पुरुष तीन प्रकारकी चेतन मानुषी दैवी और तिरश्ची तथा चौथी अचेतन इन चारो ही प्रकारकी स्त्रियों में अपने मनको विकृत बना डालता है। जैसा कि कहा भी है कि -. " अभिप्रवद्धकामस्तन्नास्ति यन्न करोति । श्रूयते हि किल कामपरवशः प्रजापतिरान्मदुहितरि, हरिगोपवधूषु, हरः संतनुकलत्रे, सुरपतिौतमभार्यायां, चन्द्रश्च बृहस्पतिपत्न्यां मनश्चकारेति” कामदेवके उद्दीप्त होनेपर ऐसा कोई काम नहीं है कि जिसको मनुष्य न करडाले । सुनते हैं कि ब्रह्मा अपनी लडकीके विषयमें, कृष्ण गोपिकाओंमें. महादेव संतनुराजाकी स्त्रीमें, इन्द्र गौतमऋषीकी भार्या अहिल्यामें, और चन्द्रमा गुरुपत्नीके विषयमें चचलचित्त होगया था। इसीलिये तो कहते हैं कि मुमुक्षुओंको आपातरम्य किंतु परिपाकमें दुःखकर समझ कर कामसुखका परित्याग ही कर देना चाहिये। जैसा कि कहा भी है कि:
認識認識讀認認識認識認識認識認認認識認識論認驗
अध्याय
रम्धमापातमात्रेण परिणामे ऽतिदारुणम् । किंपाकफलसंकाश तत्कः सेवेत मैथुनम् ।।