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बनगार
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अध्याय
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त्यक्त्वा स्त्रीविषयस्पृहादि दशधा ब्रह्मामलं पालय, स्त्रीवैराग्यनिमित्तपञ्चकपरस्तद् ब्रह्मचर्यं सदा ॥ ५९ ॥
जिसके निमित्तसे अथवा जिसके होनेपर आत्माके अहिंसादिक भाव वृहत् होते- बढते हैं उस शुद्ध निजात्माकी अनुभूतिरूप परिणतिको ब्रह्म, और उससे भिन्न मैथुनभावको अब्रह्म कहते हैं। जिस प्रकार - के निमित्तसे अहिंसादिक भाव बढते उसी प्रकार अब्रह्मके होनेपर हिंसादिक भाव बढते हैं। क्योंकि मैथुन सेवनमें उद्यत हुवा मनुष्य स्थावर और त्रस दोनो ही प्रकारके प्राणियोंकी हिंसा करता; मृषा भाषण करता; अदत वस्तुका ग्रहण करता; और चेतन तथा अचेतन परिग्रहका संग्रह भी करता है । इस तरह स्वभावसे ही दूषित इस अब्रह्मके, स्त्रीसम्बन्धी रूप रस गन्ध स्पर्श शब्द प्रभृति विषयों में स्पृहा - अभिलाषासे लेकर बस्ति - मोक्षादिक दश भेद हैं जिनका कि आगे चलकर वर्णन करेंगे। इस दशो प्रकारके अब्रह्मको हे मोक्षार्थी भव्य तू देव गुरु और सघर्माओंकी साक्षीसे छोड कर मानुषी तिरश्ची दैवी और उनकी प्रतिमा इस तरह चारो ही प्रकारकी स्त्रियों में वैराग्य - रिरंसा - रमण करनेकी इच्छाका निग्रह करनेकेलिये जो कामके दोषोंका पुनः पुनः विचार प्रभृति पांच निमित्त कारण बताये हैं जिनका कि स्वरूप आगे चल कर लिखेंगे उनमें प्रधानतया तत्पर रहकर उस ग्रहण किये हुए निर्मल निरतीचार ब्रह्मचर्यका सदा - यावज्जीवन पालन कर उसको अच्छी तरह उद्दीप्त कर | क्योंकि इस ब्रह्मचर्यके ही निमित्तसे व्रत शील प्रभृति गुण संयमके भेद प्रादुर्भूत होते और फलते हैं- आत्मा के प्रयोजनको सिद्ध करने में समर्थ होते हैं । तथा जितने भी अखर्व तेजके धारण करनेवाले हैं वे सब इसके सामने नम्र होते हैं। और इसीके निमित्तसे शब्द अथवा केवलज्ञानरूपी ब्रह्मका वह श्रुतकेवलित्व अथवा केवलित्व पर्यंत उत्कृष्टताको प्राप्त हुआ और स्वपरप्रकाशक तेज प्रकाशित होता है जो कि प्रसिद्ध है।
भावार्थ- ब्रह्मचर्य के होनेपर ही संयम उत्पन्न और सफल हो सकता तथा सांसारिक प्रभुता भी जा
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