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अलमार
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इन्ही पांच भावनाओंको ग्रंथकारने इस पद्यके उत्तरार्धमें बताया है। जिनमेंसे भोज्यमें गृद्धिका त्याग बताकर भक्तसंतोष और पानसंतोष इन दो भावनाओंको, और अपिशब्दसे देहमें अशुचित्वादिकी भावनाको, तथा अपसङ्गशब्दसे परिग्रहत्यागकी चौथी भावनाको, और स्वाङ्गालोची शब्दसे आत्मा और शरीरके भेदविज्ञानरूपी पांचवीं भावनाको दिखाया है। इन भावनाओंके निमित्तसे ही अस्तेय व्रत स्थिर रह सकता है । अत एव साधुओंको आचार शास्त्र के अनुसार योग्य याचन योग्य ग्रहण अननुप्रवेश अनासक्ति और अर्थवद्हण इन पांच भावनाओंको तथा प्रतिक्रमण शास्त्रके अनुसार भक्तसंतोष पानसंतोष देहन अपसङ्ग और स्वाङ्गालोचन इन पांच भावनाओंको भाना चाहिये । और इनका भावन करते हुए परवस्तुके विषयमें सर्वथा निरीह होना चाहिये। ऐसा करनेपर ही अस्तेयव्रत स्थिर रह सकता और उसका माहात्म्य उद्दीप्त हो सकता है।
जिस प्रकार अस्तेय व्रतकी भावनाओंको प्रकारान्तरसे यहां बताया है उसी प्रकार दूसरे व्रतोंकी भी भावनाएं प्रकारान्तरसे ग्रन्थान्तरोंमें और भी बताई हैं। उनको आगम और प्रकरणके अनुसार समझलेना चाहिये। , अस्तेय व्रतकी अत्यंत दृढतापर अच्छी तरह आरूढ हुए और प्रौढ महिमाके धारण करनेवाले साधुओंको जो परम पदकी प्राप्ति होती है उसकी प्रश्नंसा करते हैं:
ते संतोषरसायनवयसनिनो जीवन्तु यैः शुद्धचि,मात्रोन्मेषपराङ्मुखाऽखिलजगदौर्जन्यगर्जद्भुजम् । जित्वा लोभमनल्पकिल्बिषाविषस्रोतः परस्थं शकृन्,
मन्वानैः खमहत्त्वलुप्तखमदं दासीक्रियन्ते श्रियः ॥ ५८ ॥ शुद्धचिन्मात्र-समस्त विकल्पोंसे रहित निश्चल चतन्यके उन्मेष-साक्षात् अनुभवोपयोगसे पराङ्मुख ।
बध्याय
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