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भावार्थ-साधुओंको रंचमात्र मी अदत्त वस्तु ग्रहण न करनी चाहिये । यदि कोई दे भी तो आगमोक्त विधिके अनुसार दी हुई और ज्ञान तथा संयमका जो साधन हो ऐसी ही वस्तु ग्रहण करनी चाहिये । ..
विधिपूर्वक दिये हुए संयमादिके साधनोंको ग्रहण करके जो साधु यथोक्त संयमका पालन करता | है उसीका अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, ऐसा उपदेश देते हैं: -
शचीशधात्रीशगृहेशदेवतासधर्मणां धर्मकृतेस्ति वस्तु यत् ।
ततस्तदादाय यथागमं चरन्नऽचौर्यचंचुः त्रियमेति शाश्वतीम् ॥ ५५ ॥ शचीश-इंद्र-प्रकृतमें पूर्व पश्चिम और दक्षिण दिशाका स्वामी सौधर्मेन्द्र तथा उत्तर दिशाका अधिपति ऐशानेन्द्र और भूपति-राजा, एवं वसतिकाका स्वामी-गृहेश, तथा क्षेत्रका अधिष्ठाता देव, और अपने संगके साधु, इनकी ऐसी वस्तु जो धर्मका साधन हो उसको उसके स्वामीकी आज्ञासे ग्रहण करके आगमानुसार संयमका अनुष्ठान करनेवाला साधु अचौर्यव्रतमें दृढ रह सकता और शास्वत--अविनश्वर लक्ष्मी- मुक्तिश्रीको प्राप्त कर सकता है।
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___ मावार्थ-साधुको कोई भी अदत्त वस्तु ग्रहण न करनी चाहिये । यदि इंद्र राजा गृहेश देवता और साथी साधु इनमेंसे किसीकी ऐसी कोई वस्तुहो कि जिसके निमित्तसे अपने ज्ञान संयमका साधन हो सकता हो तो वह भी उस वस्तुके स्वामीकी आज्ञासे लेकर ही अपने उस ज्ञानसंयम साधनके काममें लेनी चाहिये। ऐसा करनेपर ही उसका अचौर्यव्रत स्थिर रह सकता है।
अचौर्यव्रतको स्थिर रखनेकेलिये और उसके माहात्म्यको उद्दीप्त करनेकेलिये साधुओंको १ शून्यागार
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