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नगार
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भोगनी पडती है उन इहलोकसम्बन्धी उक्त प्राणदंडान्त विपत्तियोंको तथा उनसे भी अधिक कटु और जो केवल अपनेको ही भोगनी पडती हैं ऐसी परलोकमें प्राप्त होनेवाली आपत्तियोंको न देखकर उनपर किसी प्रकारका विचार न करके और असाधारण साहसपर आरूढ होकर जो वह पर धनका हरण करता है सो केवल विषयभोगोंका स्वाद लेनेकी दुष्ट आशासे और एक साथ ही प्रचुर धनके आनेमें लुब्ध होकर-गृद्धि रखकर ही करता है।
भावार्थ-चोरी करनेवालेको जिन कर्मोंके उदयसे ऐहिक तथा पारलौकिक असह्य यातनाओंका सहनकरना पडता है उनके बंधके कारण वे दुर्भाव हैं जो कि विषयभोगोंकी लोलुपताको तृप्त करनेकेलिये युगपत् प्रचुरधन प्राप्त करनेकी इच्छासे दूसरों के धनापहारकी गृद्धिरूप होते हैं । इन अभिकांक्षारूप परिणामोंसे तीव्र कर्मोंका संचय होता और फिर उनके उदयसे असह्य दुःस्व प्राप्त होते हैं । अत एव यह स्पष्ट है कि चोरी करनेवालके जो दुर्भाव होते हैं उनके अनुसार दोनो भवोंमें प्राप्त होनेवाले दुःसह दुःखोंके कारणभूत घोर पापकर्मका बंध हुआ करता है। चोरी और उसका परित्याग दोनोंका दृष्टांतपूर्वक फल बताते हैं:
श्रुत्वा विपत्ती: श्रीभूतेस्तद्भवेन्यभवष्वपि ।
स्तेयात्तव्रतयेन्माढिमारोढुं वारिषेणवत् ॥ ५२ ॥ श्रीभूतिकी तरह इस चोरीके निमित्तसे इस भवमें तथा भवान्तरोंमें भी जो विपत्तियां प्राप्त होती हैं उनको सुनकर मुमुक्षुओंको पूज्यतापर आरूढ होनेकेलिये वारिषेणकी तरहसे चौरकर्मका त्याग ही करना चाहिये।
बध्याय
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, भावार्थ-चोरीके निमित्तसे दोनो ही भवमें जीवको श्रीभूतिकी तरह विपत्तियां प्राप्त होती और उसके त्यागसें वारिषेणकी तरह पूज्यता प्राप्त होती है। अत एव अचौर्यव्रत धारण करना उचित है।