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अनगार
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हमको अपने प्राण दे दो" तो कोई भी इस बातपर राजी न होगा। इससे मालुम होता है कि मनुष्योंको अपने प्राण सबसे अधिक प्रिय हैं। और साथ ही प्रत्येक मनुष्य धनको भी अपने प्राणोंसे अधिक ही समझता है। क्योंकि प्राण जाते भी वह धनको जाने देना नहीं चाहता। इससे यह बात भी मालुम होती है कि मनुष्योंका धन उनके श्वासोच्छ्रासके साथ ही श्वासोच्छ्रास लेता है- जीवित रहता है। जिस प्रकार मनुष्य स्वयं अ.पने प्राणोंका अनुगमन करता है उसी प्रकार अपने धनको वह प्राणोंका अनुगमन कराता है-प्राणोंके साथ ही धनको रखता है। अतएव जो मनुष्य किसीके धनका हरण करता है. वह उसके प्राणोंका हरण करता है और वह निकृष्ट पापी तथा निर्दय व्यक्ति है ऐसा ही समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि
पापास्रवणद्वारं परधनहरणं वदन्ति परमेव ।
चौरः पापतरोसा शोकनिकव्याधजारेभ्यः ।। ___ चोरी करनेवाला मनुष्य अहेरिया व्याध और जार पुरुषसे कहीं अधिक पापी है। क्योंकि आगममें दूसरोंके धनके हरणको अत्यंत उत्कृष्ट ही पापास्रवका द्वार बताया है ।
चोरी करनेवालेके माता पिता प्रभृति भी यही चाहते हैं कि यह हमसे सदा और सर्वत्र दूर ही रहे । यही बात दिखाते हैं
दोषान्तरजुषं जातु मातापित्रादयो नरम् ।
संगृह्णन्ति न तु स्तयमषीकृष्णमुखं क्वचित् ॥ ५० ॥ यदि कोई मनुष्य चोरीके सिवाय आर कुछ अपराध करे तो कदाचित् उसके माता वहिन भाई आदि बान्धव उसको आश्रय दे सकते हैं। -छिपा सकते हैं। किंतु जिसका मुख चौरकर्मरूपी कजलसे काला होगया है उसको वे कभी आश्रय नहीं दे सकते ।
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अध्याय
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