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बनगार
भावार्थ-चोरी करनेवालेको संसारमें कोई भी शरण नहीं दे सकता । जब माता पिता ही नहीं दे सकते तष और कौन दे सकता है। कहा भी है कि:
अन्यापराधवाधामनुभवतो भवति कोपि पक्षेपि । गया पगधभाजो भवति न पक्षे निजोपि जनः ।। अन्यस्मिन्नपगधे ददति जना वासमात्मनो गेहे ।
मातापि निजे सदने यच्छति वासं न चौरस्य ।। दसरे अपराधोंसे पीडित होनेवालेके पक्षमें कदाचित् कोई आदमी हो भी जाय पर चोरीका अपराध करनेवालेके पक्षमें निजका-कुटुम्बका भी आदमी नहीं हो सकता ।
दसरे अपराधोंके होनेपर मनुष्य उस अपराधीको अपने घरमें जगह-आश्रय देदिया करते हैं। किंतु चोरीका अपराध करनेवालेको मा भी अपने घरमें जगह नहीं दिया करती । • चोरी करनेवालेके अत्यंत दुःसह दुःखोंके कारणभूत कर्मोका जो बंध होता है उसको बताते हैं:
भोगस्वाददुराशयाऽर्थलहरीलुब्धोऽसमीक्ष्यहिकी:, स्वस्य स्वैः सममापदः कटुतराः स्वस्यैव चामुष्मिकीः । आरुह्यासमसाहसं परधनं मुप्णन्नधं तस्कर,
स्तत्किंचिच्चिनुते वधान्तविपदो यस्य प्रसूनश्रियः ॥ ५१ ॥ चोरी करनेवाला मनुष्य उस अनिर्वचनीय पापकर्मका संचय करता है कि जिसकी वध-प्राणदण्ड पर्यन्त होनेवाली विपत्तियां ही पुष्पसंपत्ति हैं : क्योंकि अपने कुटुम्बियों-बन्धु बान्धवोंके साथमें जो स्वयं
बच्याय
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