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अनगार
२ विमोचितावास ३ परोपरोधाकरण ४ भैक्ष्यशुद्धि ५ और सधर्माविसंवाद, इन पांच भावनाओंके भानेका उपदेश देते हैं:
शून्यं पदं विमोचितमुतावसेट्टैक्षशुद्धिमनुयस्येत् ।
न विसंवदेत्सधर्मभिरुपरुन्ध्यान्न परमप्यचौर्यपरः ॥ ५६ ॥ तृतीय अचौर्य व्रतका पालन करनेवाले साधुको शून्य-निर्जन गुहा गृह प्रभृति तथा विमोचित-परचक्रादिक जिसको खाली करके चले गये हैं ऐसे स्थानमें निवास करना चाहिये। और भैक्ष्य-भिक्षाओंमें अथवा भिक्षासे प्राप्त अन्नमें शुद्धिका विचार करके-पिण्ड शुद्धिके प्रकरणमें जो भिक्षाके दोष बताये हैं उनका परिहार करके प्रवृत्ति करनी चाहिये । तथा यह तेरा है यह मेरा है यह समझकर अथवा ऐसा प्रकरण उपस्थित करके साधर्मी साधुओं अथवा श्रावकादिकसे विसंवाद-झगडा उपस्थित न करना चाहिये । एवंच दूसरोंको रोकना भी न चाहिये-अभ्यर्थनादिकके द्वारा किसीका संकोच न करना चाहिये। यदि कोई श्रावकादिक अन्य पुरुष भी उस स्थानादिपर आवे तो उनके प्रतिबंधका प्रयत्न न करना चाहिये। इन पांच भावनाओंके निमित्तसे साधुओंका अचौर्यव्रत स्थिर रहता और उद्दीप्त होता है।
अचौर्यव्रतकी भावनाओंको प्रकारान्तरसे बताते हैं:
योग्यं गृह्णन् स्वाम्यनुज्ञातमस्यन्, सक्ति तत्र प्रत्तमप्यर्थवत्तत् । गृह्णन् भोज्येप्यस्तग?पसङ्गः,
खाङ्गालोची स्यान्निरीहः परस्वे ॥ ५७ ॥ अ.ध. ४४
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अध्याय