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बनगार
जितने असत्य वचनादिक हैं वे भी सब हिंसा ही हैं। क्योंकि वे आत्मपरिणामोंके घातके कारण हैं। हिंसासे भिन्न जो उनको दिखाया है सो केवल शिष्योंको ज्ञान करानेकेलिये-मन्दबुद्धि शिष्योंकी अपेक्षासे ।
सत्यव्रतके स्वरूपका निरूपण करते हैं:-- अनृताद्वीरतिः सत्यव्रतं जगति पूजितम् । अनृतं त्वभिधानं स्याद्रागाद्यावेशतोऽसतः ॥ ३७ ॥
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रागद्वेषरूप परिणामोंके आवेशसे अप्रशस्त वचनोंके बोलनेको अन्त कहते हैं । इस अनृतके त्यागको ही सत्यत्रत कहते हैं। यह व्रत समस्त जगत में पूज्य माना गया है । भावार्थ, अप्रशस्त वचन वे ही हो सकते हैं जो कि कर्मबंधके कारण हों । जिन वचनोंको रागद्वेष या मोहसे आक्रांत होकर मनुष्य बोलता है वे ही वचन कर्मबंधके कारण हो सकते हैं । अत एव सत्यव्रतमें भी आत्मपरिणामरूप असत्य वचनयोगका त्याग ही मुख्य समझना चाहिये । क्योंकि वही कर्मबंधका कारण है और इसलिये वस्तुतः त्याज्य तो वही है । पौद्गलिक वचन जो कि उक्त वचनयोगके कारण हैं वे तो व्यवहारसे ही त्याज्य बताते हैं; न कि वस्तुतः।
___ असत्य चार प्रकारका है उनका उदाहरणपूर्वक स्वरूप बताकर मन वचन और काय तीनों ही के द्वारा उनके त्याग करनेका दो पद्यों में विधान करते हैं:
अध्याय
नाकालेस्ति नृणां मृतिरिति सत्प्रतिषेधनं शिवेन कृतम् । क्ष्मादीत्यसदुद्भावनमुक्षा वाजीति विपरीतम् ॥ ३८ ॥ सावद्याप्रियगर्हितभेदात् त्रिविधं च निंद्यमित्यनृतम् । दोषोरगवल्मीकं त्यजेच्चतुर्धापि तत् त्रेधा ॥ ३९ ॥
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