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बनगार
धर्मः
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कहें । समस्त गुणोंकी खानि और सभी इष्टसिद्धियोंका साधन यह अहिंसा ही है । अत एव साधुओंको इसका आराधन करना ही चाहिये । क्योंकि पूर्ण अहिंसाका पालन साधु ही कर सकते हैं, जिसका कि विशेष स्वरूप पहले बताया जाचुका है।
___ अहिंसा महाव्रतके अनंतर सत्य महाव्रत क्रमप्राप्त है । अत एव बारह पद्योंमें उसीका व्याख्यान करना चाहते हैं । किंतु उसके पहले यह बताते हैं कि असत्यादि सभी हिंसाकी ही पर्याय है । अत एव उनका त्याग भी अहिंसावतमें ही अन्तर्भूत होता है।
आत्महिंसनहेतुत्वाईसैवासूनृताद्यपि ।
भेदेन तद्विरत्युक्तिः पुनरज्ञानुकम्पया ॥ ३६ ।। केवल प्राणव्यपरोपण ही हिंसा नहीं है, अनृत वचनादिक-असत्य भाषण प्रभृति भी हिंसा ही हैं। क्योंकि वे आत्मघातके हेतु हैं। उनसे आत्माके शुद्ध परिणामोंका उपमर्द ही होता है । क्योंकि प्रमत्तयोगके बिना असत्य भाषणादिक भी हो नहीं सकते । प्रमत्तयोग अथवा हिंसाका समर्थ कारण भी हिंसा ही है।
प्रश्नअसत्य भाषणादिक भी यदि हिंसा ही हैं तो आगममें दोनोंको पृथक पृथक क्यों बताया है ? आचार्योंने अहिंसा महाव्रतसे भिन्न ही सत्य महावतादिका उपदेश दिया है। और यहां भी पहले ऐसा ही लिखा है। उत्तर-हिंसा और झूठ आदिके त्यागका भेदरूपसे जो उपदेश दिया है उसका कारण केवल यही है कि कहीं अज्ञ-- मन्दमति पुरुष मोहित न होजांय--उनकी बुद्धि असत्यादिकी अनुपरतिकी तरफ उन्मुख न हो जाय; इसलिये उनके ऊपर कृपा करके ऐसा उपदेश दिया है । आगममें भी कहा है कि:
आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यवोधार्थम् ।।
अध्याय
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