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| धर्म
हित वचन कहे जाते हैं। इस तरहके वचन, आर्य पुरुषोंकी तो बात ही क्या, म्लेच्छोंमें भी निन्द्य समझे जाते हैं। जो सर्व धर्मोंसे बहिष्कृत हैं उनको म्लेच्छ कहते हैं। ऐसे लोग भी जिस वचनका आदर नहीं करते
और उसको घृणाकी दृष्टिसे देखते हैं। तो उस वचनको आर्य लोग तो बोल ही किस तरह सकते हैं ? इन असत्य वचनोंके बोलनेवाला कुबुद्धि मनुष्य जब रौरव प्रभुति नरकादिक दुर्गतियोंको ही नहीं देख सकता तो हाय, वह जिव्हाछेदादिक अपायोंको तो देख ही किस तरह सकता है।
भावार्थ-असत्य भाषण करनेसे संसारमें अनेक अनर्थ तो होते ही हैं, किंतु जो ऐसे वचनोंके बोलनेवाला है, स्वयं उसको भी इस भवमें जिव्हाछेदन स्वजनवियोग मित्रतिरस्कार और सर्वस्वहरण प्रभृति दण्ड मिलते हैं और पर भवसे अनेक नरकादिक दुर्गतियां भोगनी पडती हैं। अत एव मुमुक्षुओंको उक्त दोषरूपी साँसे पृथक् रहनेकेलिये चारो ही प्रकारके असत्यका त्याग करना चाहिये ।
जिससे लोकमें चमत्कार दिखा देनेवाले फल बहुलतया प्राप्त होते हैं उस सत्य और प्रशस्त वचनका ही नित्य सेवन करनेका उपदेश देते हैं:
विद्याकामगवीशकृत्करिमरिपातीप्यसौषधं, कीर्तिस्वस्तटिनी हिमाचलतटं शिष्टाब्दषण्डोष्णगुम् । वाग्देवीललनाविलासकमलं श्रीसिन्धुवेलाविधुं,
विश्वोद्धारचणं गृणन्तु निपुणाः शश्वद्वचः सूनृतम् ॥ ४१ ॥ जो विधिपूर्वक साधन करनेसे सिद्ध होती हैं उनको विद्या कहते हैं। ये विद्याएं इच्छित पदार्थोंको दिया करती हैं इसलिये इनको कामधेनुके समान समझना चाहिये । किंतु जिस प्रकार बच्चेसे पसुराये विना गौ ध नहीं
अध्याय