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जनगार
RASANNE
समये सुमनस्तृप्त्यै वचनामृतमुद्रेित् ॥ ४३ ॥ उछलते हुए दयारूपी पीयूष-अनुकम्पारूपी अमृतसे निरंतर पूर्ण रहनेवाले और गाम्भीर्यादिक अनेक गुणोंसे युक्त तथा सिद्धिका साधन करनेकेलिये उद्यत, अत एव रत्नाकर-समुद्रके समान साधुको, देवोंके समान सजनोंके तृप्त करनेकेलिये अपना वचनरूपी अमृत समयानुसार ही प्रकट करना चाहिये । प्रकरण और आगमके अनुरूप ही बोलना चाहिये ।
साधुओंको मुख्यतया मौन ही धारण करना चाहिये । किंतु यदि कदाचित् बोलना भी पडे तो जिससे आत्मकल्याणमें विरोध न आव इस तरहसे ही बोलना चाहिये। ऐसा उपदेश देते हैं:
मौनमेव सदा कुर्यादार्यः स्वार्थैकसिद्धये । स्वैकसाध्ये परार्थे वा ब्रूयात्स्वार्थाविरोधतः ॥ ४४ ॥ .
अनेक गुण अथवा गुणवान् पुरुष जिसका आश्रय लेते हैं ऐसे साधुको परोपकारकी अपेक्षा न करके केवल अपनी आत्माका कल्याण सिद्ध करनेकेलिये निरंतर मौन ही धारण करना चाहिये । अथवा यदि कोई ऐसा परोपकारका कार्य हो जो कि एक अपने द्वारा ही सिद्ध हो सकता हो तो, उस विषयमें बोलना भी चाहिये । किंतु स्वार्थ-आत्मकल्याणमें किसी तरहका विरोध न आवे इस तरहका बोलना चाहिये ।
अध्याय
___भावार्थ-साधुओंको परोपदेशादिक भी करना चाहिये किंतु आत्मसिद्धिमें किसी तरह विरोध न आवे-बाधा उपास्थित न हो इस तरहसे ही वह करना उचित है । क्योंकि यह कार्य यौण है। मुख्यतया तो साधुओंको मौन ही धारण करना चाहिये । कहा मी है कि: