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बनगार
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श्रध्याय
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मौनमेव हितं पुंसां शश्वत्सर्वार्थसिद्धये । वचो वातिप्रियं तथ्यं सर्वसत्वोपकारि यत् ॥
समस्त पुरुषार्थोंकी सिद्धिकेलिये मनुष्यों को निरंतर मौन ही धारण करना चाहिये । अथवा समस्त जीवोंका उपकार करनेवाला अत्यंत प्रिय और सत्य वचन बोलना चाहिये । और भी कहा है कि:धर्माशे क्रियाध्वंसे स्वसिद्धान्तार्थविप्लवे । अपृष्टेरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने ॥
जहां पर धर्मका नाश होता हो, या क्रियाकाण्डका ध्वंस होता हो, अथवा आत्मसिद्धांत के अर्थका विलव होता हो, वहां पर उनका सत्य स्वरूप प्रकाशित करनेकेलिये विना पूछे भी बोलना चाहिये ।
क्रोध लोभ भीरुत्व और हास्य इन चार भावोंका प्रत्याख्यान - त्याग तथा अनुत्रीचे भाषण इस तरह पांच भावनाओं को करनेवाले साधुको अपने सत्यव्रतका माहात्म्य अच्छी तरह उद्दीप्त करना चाहिये। इस बात की शिक्षा देते हैं:
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हत्वा हास्यं कफवल्लोभमपास्यामवद्भयं भित्त्वा ।
वातवदपो कोपं पित्तवदनुसूत्रयेद्विरं स्वस्थः ॥ ४५ ॥
स्वस्थ साधुओं को उचित है कि वे हास्य कषायको कफकी तरह नष्ट करके, और लोभ कषायको आम विकारकी तरह दूर करके, तथा भयको वातदोषकी तरह छोड़ कर अथवा कोप- क्रोधको पिचकी तरह त्याग कर सूत्रानुसार ही वचन बोलें ।
भावार्थ - व्याधिरहित पुरुषको स्वस्थ कहते हैं -- यथा:--
धर्म -
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