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शतरंजके मुहरोंको यद्वा पाषाणादिकको, यह देव है, ऐसा कहना। जो पदार्थ या कार्य जिस रूपमें हो सकता है उस रूपमें कभी न होनेपर भी उस पदार्थ या कार्यकी उस योग्यताके निदर्शनको संभावना सत्य कहते हैं। जैसे कि यह कहना कि " अपने शिरसे यह पर्वतका भी भेदन कर सकता है ।" कोई कोई आचार्य इसकी जगह संयोजना सत्य बताते हैं । जैसा कि चारित्रसारमें भी कहाहै कि-"धूप चूर्ण वासना लेप चटनी आदिकमें किस पदार्थ का कितना भाग रखना उसके विधान करनेवाले वचनको अथवा पद्म मकर हंस सर्वतोभद्र क्रौंच चन्द्र शकट आदिक सेनाके व्यूह-रचनाविशेष प्रभृतिमें चेतन और अचेतन पदार्थके कितने भागको और कहांपर विभक्त करना, इस बातके बतानेवाले शब्दोंको संयोजना सत्य कहते हैं।" किसी पदार्थकी यथार्थ सूक्ष्म अवस्थाविशेषके प्रकट करनेवाले शब्दोंको भावसत्य कहते हैं। जैसे कि छद्मस्थ ज्ञानी-अल्पज्ञानके धारण करनेवाले संयमी अथवा श्रावकोंसे जो कि द्रव्यके पूर्ण स्वरूपको देख नहीं सकते, उनके संयमादिक गुणोंका पालन करनेकेलिये सचित्त वस्तुको, यह अप्रासुक है, ऐसा कहना तथा अचित्त वस्तुको, यह प्रासुक है, ऐसा कहना । जिनसे अहिंसादिक भावोंका पालन हो सकता है उन वचनोंको भी भाव सत्य कहते हैं। जैसे कि यह कहना कि देख सोध कर अपने आचारमें प्रवृत्त हो और सावधान रह । लोकव्यवहारके अनुरूप वचनको व्यवहार सत्य कहते हैं । जैसे कि पके हुए भी चावलों-भातके विषयमें यह कहना कि "चावल करलो-पकालो" अथवा, " चावल किये हैं" इत्यादि । एक पदार्थमें किसी दूसरे पदार्थकी अपेक्षासे कुछ भी वर्णन करनेको प्रतीत्य सत्य कहते हैं । जैसे कि यह कहना कि " यह आदमी लम्बा है।" यद्यपि उससे भी अधिक लम्बाई पाई जाती है तथा प्रत्येक आदमीमें भी कुछ न कुछ लम्बाई रहती ही है। फिर भी सर्व साधारणकी अपेक्षासे कुछ अधिक लम्बाई बतानेके लिये ही ऐसा कहा है। यही प्रतीति इस शब्दसे होती है। अत एव ऐसे सत्य वचनको प्रतीत्य सत्य कहते हैं । तुलनास्मकता दिखानेवाले शब्दको उपमिति सत्य कहते हैं । जैसे कि पल्य-खासकी सदशताकी अपेक्षासे नाप-विशेषको भी पल्य कहना । अन्य वर्णोंके रहते हुए भी किसी विवक्षित वर्णकी अपेक्षासे उस पदार्थको वैसा ही कहना इसको
बध्याय
१-उपमा मानके आठ भेदोंमेंसे एक भेदरूप संख्याविशेष | इसका प्रमाण गोमट्टसारादिकमें देखना चाहिये ।
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