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होती, और ६ लक्ष्मी सिद्ध होती है । अत एव जगत्का उद्धार करनेमें समर्थ और अद्भुत चमत्कारोंसे युक्त इस सत्य वचनका ही सूक्ष्म दृष्टि रखनेवाले मुमुक्षुओंको निरंतर भाषण करना चाहिये ।।
उपर्युक्त सत्य वचनके स्वरूपका निरूपण करते हैं:
सत्यं प्रियं हितं चाहः सूनतं सुनतव्रताः।
तत्सत्यमपि नो सत्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥ ४२ ॥ सत्यका व्रत रखनेवाले " मैं सत्य ही बोलूंगा " इस तरहकी दृढ प्रतिज्ञामें निष्णात व्यक्तियोंने सत्यका स्वरूप इस प्रकार कहा है कि- सत्-उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक पदार्थके ऐसे निरूपण करनेको सत्य कहते हैं जो सत् - प्रशस्त योग्य तथा प्राणियों के कल्याणका कारण हो; जो सुननेवालोंको आल्हाद उत्पन्न कर. नेवाला हो; और जिससे जीवोंका उपकार हो। किंतु उस सत्य को भी सत्य न समझना चाहिये जो कि अप्रिय और अहितकर हो। चोरको चोर कहना यद्यपि यथावत् पदार्थका निरूपण करना ही है । फिर भी अप्रिय बचन होनेके कारण उसको असत्य ही कहा है। क्योंकि असत्य भाषण के जो दोष बताये हैं वे कर्कशादिक वचन बोलनेवालेको भी लगते हैं । यथाः--
___ असत्य वचनके जो लौकिक और पारलौकिक दोष बताये हैं वे ही सब कर्कश वचनादिकोंके भी समझने चाहिये।
. साधुओंको सज्जन पुरुषोंका समीचीन कल्याण करनेकेलिये समयानुसार ही बोलना चाहिये ऐसी शिक्षा देते हैं:
साधुरत्नाकरः प्रोद्ययापीयूषनिर्भरः। अ.ध. ४२
वध्याय
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