________________
बनगार
३०६
अध्याय
8
भावार्थ - हिंसा और अहिंसा प्रमाद या कषायरूप परिणामोंके होने और न होनेपर निर्भर है। जैसा कि कहा भी है:
=
मरदु व जियदु व जीवो अजदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामत्तेण समिदस्स ||
जीव मरे या जिये, यत्नाचार न रखनेवाले के हिंसा निश्चित है । और जो यत्न रखनेवाला तथा समीचीन प्रवृत्ति करनेवाला है उसके हिंसामात्र से ही बंध नहीं हो जाता ।
प्रश्न- यदि परिणामोंपर ही हिंसा निर्भर है तो प्रमत्तयोगको ही हिंसा कहना चाहिये । उसके देना चाहिये । उसके साथ प्राणव्यपरोपण के भी उपदेश देनेसे क्या फायदा ?
उत्तर - हिंसा प्राणव्यपरोपणरूप ही है; किंतु उसका कारण प्रमत्तयोग है । और वह समर्थ कारण हैं । अत एव कारणमें कार्यका उपचार करके उसको हिंसा कहा है। क्योंकि प्रमत्त योगसे प्राणोंका व्यपरोपण होता ही है । यदि वा प्राणोंका घात न होगा तो भात्र प्राणोंका होगा, पर होगा अवश्य। इसी बातका समर्थन करते हैं:
-
प्रमत्तो हि हिनस्ति स्वं प्रागात्माऽऽतङ्कतायनात् ।
परो न म्रियतां मा वा रागाद्या ह्यरयोङ्गिनः ॥ २४ ॥
दुष्कर्मों का संचय करने के कारण अथवा व्याकुलतारूप दुःखको उत्पन्न करने वा बढाने के कारण प्रमत्त जीव पहले अपना तो घात कर ही लेता है । फिर दूसरा जीव मरो वा मत मरो । क्योंकि जीवों के वास्तविक वैरी तो रागादिक कषाय ही हैं; न कि दूसरोंका प्राणवध । क्योंकि दुःखोंकी प्राप्ति और उनके कारणोंका संचय इससे होता है । कहा भी है कि:--
३०६