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धृत्त्वायान्तमार्स बलाद्रभसया तां च्छिन्दता तच्छिर,. श्छिन्नं यत्किल लक्ष्मणेन नरके ही तत्खरं भुज्यते ॥ ३१ ॥
बनमार
यह बात आगममें प्रसिद्ध है कि दण्डकवन-पञ्चवटीमें वांसोंकी जालीके भीतर बैठकर चिरकाल-छह महनिमें विद्याको अच्छी तरह-विधिपूर्वक सिद्ध कर-खड्गाधिपति देवताको वशमें करके शम्बुकुमार-सूर्पणखाके पुत्रने जिस सूर्यहास खब्ज का आकर्षण किया था वह जब आकाशसे आने लगा तो उसको झटस उछल कर लक्ष्मणने बलपूर्वक अपने हस्तगत करलिया और उसको लेकर शीघ्रतासे-विना विचारे ही उस वंशजालीको काटते हुए शम्बकुमारका शिर भी काट डाला । उसीका फल है कि लक्ष्मण आज नरकमें अत्यंत दुःसह फल भोग रहे हैं।
भावार्थ-लक्ष्मणने विना विचारे-प्रमादपूर्वक जो शम्बुकुमारका शिरश्छेदन किया उससे आज तक उसको नरकके दुःख भोगने पड रहे हैं । इससे स्पष्ट है कि हिंसाका फल एक दुर्गतियोंका दुःख ही है।
हे भव्य ! हिंसाका त्याग न करके भी, मैं हिंसा करता नहीं हूं इसलिये मोक्षमार्गपर ही हूं, ऐसा भत समझ; क्योंकि हिंसासे अविरति भी हिंसापरिणामोंकी तरह हिंसा ही है और उससे भी वही फल होता है जो कि हिंसापरिणामोंसे होता है । इसी बातका ज्ञानलवदुर्विदग्ध पुरुषको ज्ञान कराते हैं
STALE
अध्याय
स्थान्न हिस्यां न नो हिंस्यामित्येव स्यां सुखीति मा !
अविरामोपि यद्वामो हिंसाया: परिणामवत् ॥ ३२॥ हे सुखार्थी भव्य! " मैं अहिंसाका पालन नहीं करता तो हिंसा भी नहीं करता हूं. अत एव मुझको अवश्य ही सुखोंकी प्राप्ति होगी" ऐसा समझकर तू स्वस्थ मत हो-चारित्राराधनकी तरफसे उपेक्षित मत हो। क्योंक हिंसाके परिणामोंकी तरह उसकी अनुपरति भी विरुद्ध-दुःखकर ही है।