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बनमार
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अध्याय
भावार्थएव अहिंसा व्रतका कि यह बात नहीं है;
बहुत से लोगोंकी ऐसी समझ है कि “ दुःखका कारण हिंसा है, सो मैं करता नहीं हूं । अत पालन न करके भी अतिशयित सुख प्राप्त कर सकता हूं"। इस विषयमें ग्रंथकार कहते हैं क्योंकि हिंसा के अत्यागको अहिंसा नहीं कह सकते; वह हिंसा ही है । अत एव वह सुखका कारण नहीं, दुःखका ही कारण है । जैसा कि कहा भी है कि—
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हिंसाया अविरमणं वघपरिणामोपि भवति हिंसेंव । तस्मात्प्रमत्त योगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ||
वधपरिणामोंकी तरह हिंसा से अनुपरति भी हिंसा ही है; क्योंकि प्रमत्तयोग से होनेवाले प्राणव्यपरोपणको हिंसा कहते हैं । इसीलिये आत्मकल्याणके अभिलापियोंको अहिंसा व्रतरूपसे ही स्वीकार करनी चाहिये | हिंसा और अहिंसा के क्रमानुसार विशिष्ट फलको दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हुए आत्महितका साधन क रनेके लिये उद्यत हुए भग्योंको नितांत अहिंसापरिणतिकेलिये ही उद्यम करनेकी प्रेरणा करते हैं ।
धनश्रियां विश्रुतदुःखपाका,-- माकर्ण्य हिंसां हितजागरूकाः । छेत्तु विपत्तर्मृगसेनवच,
श्रियं वतुं व्रतयन्त्वहिंसाम् ॥ ३३ ॥
आत्महित सिद्ध करनेकेलिये सदा जागृत रहनेवाले मुमुक्षुओं को उस हिंसाका स्वरूप कि जिसका फल वोर दुःखों का अनुभवन प्रसिद्ध है, और जो कि धनश्रीको भोगना पडा था; आप्त पुरुषोंसे सुनकर - समझकर उन विपत्तियों का नाश करनेकेलिये और लक्ष्मीका वरण करनेकेलिये मृगसेन नामके धीवर की तरहसे अहिंसाको व्रतरूपसे ही स्वीकार करना चाहिये ।
धर्म
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