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भनगार
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वे हिंसा अहिंसाके वास्तविक स्वरूपको भले प्रकार समझकर अहिंसाका पालन कर सकते हैं। रागद्वेषरूप हिंसा और उसके साधनोंका त्याग कर समतापरिणामोंको धारण कर सकते तथा अपनी तरह दूसरोंकेलिये भी घोर दुःखके कारण प्राणवध जैसे अकृत्यका त्याग कर सकते हैं । अत एव ज्ञानी मुमुक्षुओंको हिंसा अहिंसाके स्वरूप साधनादिकको समझकर मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनाके द्वारा हिंसाका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । यथाः
पहजीवनिकायवधं यावज्जीवं मनोवचःकायैः ।
कृतकारितानुमननैरुपयुक्तः परिहर सदा त्वम् ।। हे भव्य ! इन षट्कायिक जीवोंकी हिंसाका तू मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनाके सभी भंगोंसे यावजीव सर्वथा परित्याग कर ।
इस हिंसाके निमित्तसे इस लोक और परलोक दोनो ही जगह ऐसे दुःख और क्लेश उपस्थित होते हैं | जो कि अत्यंत ही दुर्निवार हैं । इसी बातको दिखाते हुए मुमुक्षुओंको उससे सर्वथा निवृत्तिका उपदेश देते हैं:
कुष्टप्रष्ठैः करिष्यन्नपि कथमपि यं कर्तुमारभ्य चाप्त,भ्रंशोपि प्रायशोत्राप्यनुपरममुपद्र्यतेऽतीव रौद्रैः । यं चक्राणोथ कुर्वन्विधुरमधरधीरेति यत्तत्कथास्तां,
कस्त प्राणातिपातं स्पृशति शुभमतिः सोदरं दुर्गतीनाम् ॥ ३० ॥ जो हिंसा दुर्गतियोंकी सहोदरी है, जिसके कि निमित्तसे जीवोंको नरकादिक गतियोंका भोग अवश्य ही करना पडता है। उसके करने करानेकी तो बात ही क्या; जो करनेकी इच्छा भी करता है वह भी इसी जन्म
मध्याय
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