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अनमार
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धध्याय
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है और जिसके इस बात का निश्चय है कि यह प्राण व्यपरोपण अपनी तरहसे दूसरों को भी अस दुःखका कारण वह पुरुष प्राणवर्ष जैसे अकार्य - शास्त्रसे निषिद्ध और नीतिविरुद्ध अकृत्यको किस तरह कर सकता है ?
भावार्थ - आत्मा शरीरसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है । क्योंकि शरीर अनित्य और आत्मा नित्य है, तथा संज्ञा संख्या लक्षण और प्रयोजनकी अपेक्षासे भी दोनोंमें कथंचित् भेद है। जिससे दोनों का सहसा पृथक्करण नहीं हो सकता, ऐसे बंधके कारण कथंचित् अभेद हैं । किंतु मोहोदयजनित अज्ञान के कारण कितने ही लोग ऐसा नहीं समझते। और दोनोंमें सर्वथा भेद ही मानते हैं। ऐसे लोगों के मतानुसार धर्म दयाप्रधान ही है यह बात सिद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि सर्वथा भेद होनेसे शरीरका नाश होजानेपर भी आत्माका नाश नहीं हो सकता । और इसके विना हिंसाकी उपपत्ति, तथा हिंसाके विना उसकी निवृत्तिरूप दयाकी सिद्धि नहीं हो सकती । जैसा कि कहा भी है
आत्मशरीरविभेदं वदन्ति ये सर्वथा यतविवेकाः । कायवधे हन्त कथं तेषां संजायते हिंसा ॥
जो अविवेकी आत्मा और शरीरमें सर्वथा भेद बताते हैं, आश्चर्य है कि उनके यहांपर शरीर के वधसे हिंसा किस तरह हो जाती है ?
इसी प्रकार कितने ही लोग उस अज्ञान के कारण ही आत्मा और शरीरमें सर्वथा अभेद मानते हैं । किंतु उनके मतानुसार भी दयाप्रधान धर्मकी सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि उनके यहां शरीरका नाश होनेसे आत्माका ही नाश हो जायगा । और ऐसा होनेसे परलोक तथा उसकेलिये दयाधर्मका अनुष्ठान वन नहीं
सकता । यथाः -
अ. ध. ४०
धर्म •
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