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बनगार
ये दो निर्वर्तनाके, तथा उपकरण संयोग और भक्तपान संयोग ये दो संयोगके, एवं दुष्ट मन वचन काय ये तनि निसर्गके भेद हैं।
उपर्युक्त कथनका सारांश यही है कि जो मुमुक्षु, प्राणव्यपरोपण अपनी तरहसे दूसरेको भी असह्य दुःखका कारण है ऐसा निश्चित समझता है वह सभी प्राणियोंमें सम्यग्दी होकर समस्त हिंसाके साधनोंका सर्वथा परित्याग करदेता है। इस उपसंहृत अर्थको ही आगेके पद्यमें प्रकट करते हैं:
मोहादैक्यमवस्यतः स्ववपुषा तन्नाशमप्यात्मनो, नाशं संक्लिशितस्य दुःखमतुलं नित्यस्य यद्रव्यतः। स्याद्भिन्नस्य ततो भवत्यसुभृतस्तद्घोरदुःखं स्वव,
जानन् प्राणवधं परस्य समधीः कुर्यादकार्य कथम् ॥ २५ ॥ जिसके मोहनीय कर्मके उदयसे आत्मा और शरीर दोनोंका भेदज्ञान नहीं हुआ है और इसीलिये जो अपने शरीरके साथ अपनी आत्माकी एकताका निश्चय रखता है शरीर ही मैं हूं और मैं ही शरीर है ऐसा जो समझता है और जो शरीरके नाशको ही उस आत्माका भी नाश मानता है। जो कि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे नित्य अविनाशी और उससे कथंचित् भिन्न है, एवं च जिसका हृदय शरीरके द्वारा प्रवृत्त होनेवाली व्याधि जरा मरणादिकी भीतियोंसे सदा संक्लिष्ट रहा करता है उस प्राणीको अपने उस अज्ञानके कारण अतुल दुःख हुआ करता है। अत एव जो पुरुष शत्रु और मित्र दोनोंमें समान बुद्धि रखता है-राग द्वेषसे रहित
बध्याय
१--तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान ।