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धनगार।
३१.
ऊपर भावाहंसाका वर्णन किया है। किंतु उसके भी निमित्तभूत परद्रव्य हैं। अत एव परिणामोंकी विशुद्धिके लिये-अहिंसाभावकी निर्मलताकी सिद्धिके लिये उस परद्रव्यकी भी निवृत्ति करनेका उपदेश देते हैं:
हिंसा यद्यपि पुंसः स्यान्न स्वल्पाप्यन्यवस्तुतः ।
तथापि हिंसाऽऽयतनाद्विरमेद्भावशुद्धये ॥ २८ ॥ यद्यपि पर वस्तुके सम्बन्धसे-प्रमत्त परिणामोंके विना केवल बाह्य द्रव्यके ही निमित्तसे जीवको जरा भी हिंसाका दोष नहीं लगता, तो भी भावशुद्धिकेलिये-आत्मा और मनमें निर्मलताकी स्थिरता और वृद्धिकेलियेमोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए रागद्वेषरूप कालुप्यका उच्छेद करनेकेलिये भावहिंसाके निमित्तभृत बाह्य पदार्थमित्र शत्रु प्रभृतिसे भी मुमुक्षुओंको विरत होना चाहिये ।
भावार्थ-हिंसाके उपकरणभूत जीवाधिकरणोंकी तरह अजीवाधिकरणोंका भी त्याग करना चाहिये जो कि अजीवकी पर्यायरूप और हिंसाके आयतन--भावहिंसाके कारण हैं। इस अजीवाधिकरणके चार भेद हैं- निर्वर्तना निक्षेप संयोग और निसर्ग । किसी वस्तुके इस तरहसे प्रयुक्त करने अथवा बतानेको कि जिससे वह हिंसाका उपकरण-साधन : हो सके, निर्वर्तना कहते हैं। यह दो प्रकारकी होती है। एक शरीरनिर्वर्तना, दूसरी उपकरणनिर्वर्तना । शरीरको उस तरहसे दुष्प्रयुक्त करनेका नाम शरीरनिर्वर्तना और सच्छिद्रादिक उपकरणोंके उस तरहसे उपयुक्त करनेका नम उपकरणनिर्वर्तना है।
किसी भी वस्तुके इस तरहसे रखनेको कि जिससे वह हिंसाका साधन हो सके निक्षेप कहते हैं । यह चार प्रकार का है-सहसा अनाभोग दुःप्रमृष्ट ओर अप्रत्यवेक्षित । भय आदिके कारण पुस्तकादिक उपकरणों अथवा शरीरके
SHARITRATEHEATER REATRENA
अध्याय
१-निर्वर्तनादिक शब्दोंका अर्थ कर्मरू
और क्रियारूप दोनो तरहका हो सकता है।