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अनगार
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अधिक कहनस क्या प्रयोजन ? क्योंक और आधिक बोलना प्रलाप ही समझा जायगा । अत एव इतना कहदेना ही पर्याप्त है कि मोक्षार्थी भव्य एक विषयाशा इन्द्रियोंके अभीष्ट विषयोंकी लिप्सारूपी पिशाची-चुडेलग ही यदि किसी तरहसे-ज्ञानाराधनासे वैराग्य भावनासे अथवा अन्य किसी उपायसे निराकण करदे-उसको दूर करदे तो उनका अभीष्ट-प्रकृतमें सम्यक् चारित्रका मूलभूत दयाधर्म निर्विघ्नतया--अच्छी तरह सिद्ध हो जाय । क्योंकि उसकी सिद्धिका एकमात्र निबंधन विषयनिस्पृहता ही है।
इस अध्याय और प्रकरण के प्रारम्भमें सुचारिवरूपी छायावृक्षका मूल दया और स्कन्ध समीचीन व्रत हैं। सों बना चुके हैं। उसमेंसे दयामूलका समर्थन किया। अब समीचीन बत क्रमप्राप्त है। अत एव व्रतोंका, स्वरूप बताते हैं:
हिंसाऽनृतचुराऽब्रान्वेन्यो बिरातिर्बतम् । ..
तत्सत्सज्ञानपूर्वत्वात् सदशश्चोपबृंहणात् ॥ १९ ॥ हिंसा झूठ चोरी कुशील और परिग्रह इन पांच पापोंसे उपरति होनेको-मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनाके द्वारा इन पापोंके छोडने को बेत कहते हैं । ये व्रत सम्यग्ज्ञानपूर्वक होते हैं, इनके उत्पन्न होने में सम्यग्ज्ञान कारण है । तथा इनके द्वारा सम्यग्दर्शनकी वृद्धि होती है । अत एव ये समीचीन या प्रशस्त कहे जाते हैं। .
हिंसादि पापोंका विशेष लक्षण आगे चलकर लिखेंगे । फिर भी सामान्यसे इतना अवश्य समझलेना चाहिये कि प्रमादके संबंध प्राणोंके व्यपरोपणको हिंसा, असर्मा न वचनोंको झूठ, विना दी हुई वस्तुके ग्रहण करनेको चोरी, मैथुनकर्मको कुशील और मूपिरिणामोंको परिग्रह अथवा ग्रंथ कहते है।
अध्याय
NERHEARTHEARBLEKHNERE
१-ये पांची ही व्रत दो प्रकारके हैं-महाव्रत और अणुव्रत । किंतु अणुव्रतोंमें एक छडा व्रत रात्रिभोजन त्याग और भी बताया है।