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निमार
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| इस उक्त दयाधर्मकी रक्षाकेलिये विषयत्याग करनेका उपदेश देते हैं:
सवृत्तकन्दली काम्यासुद्भेदयितुमुद्यतः।
यैश्छिद्यते दयाकन्दस्तेऽपोह्या विषयाखवः ॥ १५ ॥ मुमुक्षुओंको वे विषयरूपी मूसे दूर ही से बिडारदेने चाहिये, जो कि उन भव्योंको स्पृहणीय सम्यक्चारित्ररूपी कन्दलीको आविर्भूत करनकोलिये उद्यत हुए दयारूपी कन्दको छिन्न भिन्न करडालते हैं।
भावार्थ-मुमुक्षुओंको इसकेलिये सदा सावधान होकर प्रयत्न करना चाहिये कि अभीष्ट चारित्रकी मूल दयाको कहीं ये विषयरूपी मूसे न कुतर जाय । इन्द्रियोंमें जो विवेकको नष्ट करनेकी सामर्थ्य है उसको बताते है:---
स्थार्थरसकेन ठकवद्विकृष्यतेऽक्षेण येन तेनापि । न विचारसंपदः परमनुम्पाजीवितादपि प्रज्ञा ॥ १६ ॥
स्वार्थलम्पट ठगोंके समान, अपने विषयोंमें लोलुपता रखनेवाली जो इन्द्रियां प्रज्ञा--यथावत अर्थक ग्रहण करनेकी शक्तिको धारण करनेवाली विशिष्ट बुद्धिको उसकी विचार संपत्तिसे दूर करदेती हैं । वे अपने निमित्तके वश बल पाकर, इतना ही नहीं--उस प्रज्ञाकी विवेकश्रीका अपहरण ही नहीं करती किंतु अनुकम्पा -दयासे भी उसको रहित करदेती हैं। जो कि उसका जीवन है।
बध्याय
... भावार्थ--जिस प्रकार कोई ठग अपना काम- स्वार्थ सिद्ध करनकोलिये किसी अतिविदग्ध भी स्त्रीकी संपत्ति भूषणादिका अपहरण करलेता और अंतमें उसको जीवनरहित बना देता है। उसी प्रकार विषयलो