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बनगार
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बध्याय
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भावार्थ - जिसका अपकार किया जाता है उसके मनमें बहुधा ऐसा कषायका संस्कार जम जाता है जो कि अनंत भव भी नहीं छूटता । और जब मौका पाता है तभी उस कषायके वश होकर वह जीव उससे बदला लेना चाहता है । पार्श्वनाथ भगवान् तेईसवें तीर्थंकर के जीवने मरुभूतिके भवमें अपने बड़े भाई कमठका अपकार भी नहीं किया था । फिर भी अपकार समझ कर उसके मनमें जो कषायवासना जमगई और उसके अनुसार समय समयपर जो उसने अपराध किये सो सब पुराणों में स्पष्ट हैं । अत एव किसी भी जीवका कभी भी एक बार भी अपकार नहीं करना चाहिये ।
जो व्यक्ति सदा दयाकी भावना - अनुस्मरण करनेवाली है उसको परम प्रमोदरूप फल प्राप्त होता है। ऐसा उपदेश देते हैं:
तत्त्वज्ञानच्छिन्नरम्येतरार्थप्रीति द्वेषः प्राणिरक्षामृगाक्षीम् ।
आलिङ्गयालं भावयन्निस्तरङ्गस्वान्तः सान्द्रानन्दमङ्गत्यसङ्गः ॥ १४ ॥ मनोज्ञ और अमनोज्ञ पदार्थों में क्रमसे होनेवाले राग और द्वेषको जो तत्त्वज्ञानके द्वारा नष्ट करके और मनको निर्विकल्प बनाकर प्राणिरक्षा - दयारूपी गुणोंका पुनः पुनः स्मरण करता हुआ आलिङ्गन करता है वह अत्यंत निविड आनंदको प्राप्त होता है।
व्यक्ति - परिग्रहरहित यति मृगाक्षी - मृगनयनीका उसके
भावार्थ -- दयाके द्वारा आनन्द फल प्राप्त करनेवालेको असङ्ग शब्दसे जो कहा है उसका अभिप्राय अचेतन परिग्रहोंमेंसे जितनेका त्याग किया जासके उतनेका त्यागी किंतु जिनका वह त्याग न कर सके उके विषय में ममत्वका त्याग करनेवाला है । इसी प्रकार दयाको मृगनयनी - कामिनी कहनेका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कामिनीका प्रत्येक अंग आनन्दोत्पादक होता है उसी प्रकार दयाका भी प्रत्येक अंश सुखा. वह होता है।
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