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अनगार
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अध्याय
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या लोभका क्षयोपशम होना चाहिये। तीसरा यह कि उसको विषयोंमें निस्पृहता हो । दृष्ट श्रुत और अनुभूत भोगोपभोगों में उसकी अभिलाषा न हो ।
इन व्रतका विशेष व्याख्यान करनेकी इच्छासे क्रमानुसार पहले चौदह श्लोकोंमें अहिंसा व्रतकी व्या या करते हैं । किंतु अहिंसाका स्वरूप समझनेकेलिये पहले हिंसा के स्वरूपका ज्ञान होना चाहिये । अत एव यहां पर पहले हिंसाका ही लक्षण बताते हैं :--
सा हिंसा व्यपराप्यन्ते यत् सस्थावराङ्गिनाम् । प्रमतयोगतः प्राणा द्रव्यभावखभावकाः ॥ २२ ॥
प्रमत्त योगसे त्रस और स्थावर जीवोंके यथासंभव द्रव्य और भाव प्राणका जो व्यपरोपण होता है उसको हिंसा कहते हैं।
अथवा तीव्र कषायके उदयसे युक्त प्रयत्न करता है उसको, यद्वा राजा प्रवृत्त होता है उसको प्रमस कहते
भावार्थ - इन्द्रियप्रचारको न रोककर जो प्रवृत्ति करता है उसको होकर जो हिंसादिके कारणोमें तो प्रवृत्ति करता किंतु अहिंसामें शठतासे चोर भोजन और स्त्री इनकी कथाओं पंच इन्द्रियों और निद्रा तथा स्नेहमें जो हैं। प्रमत्त पुरुषके मन वचन और कायके द्वारा होनेकाले कर्मको कार्यको प्रमतयोग कहते हैं । अथवा प्रमाद शब्दका अर्थ सकषायता भी होता है । अत एव रागद्वेषादिके वश होकर जो मनवचनादिकी प्रवृत्ति होती है उसको भी प्रमत्तयोग कहते हैं। इस प्रमतयोगसे जिन प्राणोंका व्यपरोपण होता है वे प्राण दश प्रकारके हैं । यथाः
१ - जिनका संयोग रहने तक " जीव जीता " और वियोग होनेपर " मरगया " ऐसा व्यवहार होता उनको प्राण कहते हैं ।
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