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भनगार
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अब यहां क्रमानुसार अंतकी दोनो आराधनाओंका-साधन और निस्तरणका स्वरूप बताना चाहिये किंतु उसके पहले ज्ञानरूप प्रकाशको दुर्लभता प्रकट करते हैं। :
दोषोच्छेदविजृम्भितः कृततमश्छेदः शिवश्रीपथः, सत्त्वोद्बोधकरः प्रक्लप्तकमलोल्लासः स्फुरद्वैमः । लोकालोकततप्रकाशविभवः कीर्ति जगत्पावनी, तन्वन् कापि चकास्ति बोधतपनः पुण्यात्मनि व्योमनि ॥ १८ ॥
__बोध- सम्यग्ज्ञानको बिलकुल सूर्यके समान समझना चाहिये । क्योंकि जिस प्रकार सूर्य अपने कार्य दोषा-रात्रिके क्षयके करनेमें निरंकुशतया प्रवृत्त हुआ करता है, उसी प्रकार ज्ञान भी संदेहादिक दोषोंके उच्छे. दरूप अपने कार्यके करनमें स्वतंत्रतया प्रवृत्त हुआ करता है। जिस प्रकार सूर्य अंधकारका नाश करता है उसी प्रकार ज्ञान भी अपने प्रतिबंधक कमके वांतका धंस करता है । जिस प्रकार सूर्य-शिवों-मुक्तात्माओंका श्रीपंथ-प्रधानमार्ग है उसी प्रकार ज्ञान भी शिवश्री मोक्षलक्ष्मीका मार्ग-प्राप्तिका उपाय है । जिस प्रकार सूर्य प्राणियोंकी निद्राको दूर करके उद्बोध-जागृतता उत्पन्न करनेवाला है उसी प्रकार ज्ञान भी सत्व-सात्विकता गुणका उद्बोध करनेवाला है-उसको आभव्यक्त-प्रकाशित करनेवाला है। जिस प्रकार सूर्य कमलोंके उल्लास-विकाशको प्रकाशित करनेवाला है उसी प्रकार ज्ञान भी कमला-लक्ष्मीको उद्गति-उभृतिका करनेवाला है। अथवा क-आत्माके मल-रागद्वेषादि विभावोंके उद्भवको अच्छी तरह क्षीण नष्ट करनेवाला है । जिसप्रकार सूर्य लोकालोक-निषधाचलपर अपनी आलोकसंपत्तिको विस्तृत करता है उसी प्रकार ज्ञान भी लोक
अध्याय
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१-इसका समर्थन अध्याय २ श्लोक ६५ में किया जा चुका है।