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अनगार
शुक्लं ततश्च कैवल्यं ततश्चान्ते पराऽच्युतिः ॥ २४ ॥ . श्रुतभावना-व्यग्रतारहित ज्ञानकी अपेक्षा स्वाध्यायसे और एकाग्र ज्ञानकी अपेक्षा धर्मध्यानसे पृथक्त्व वितकवीचार और एकत्ववितर्कवीचार नामके दोनो शुक्लध्यान संपन्न हुआ करते हैं । और इन दोनोंका कैवल्यके साथ हेतुहेतुमद्भाव है । अत एव दोनो शुक्लध्यानोंसे कैवल्य असहाय ज्ञानदर्शनरूप पर्यायकी निष्पत्ति हुआ करती है। और इस पर्यायके प्राप्त होजानेपर अंतमें-संसारका अभाव होजानपर परम मुक्तिपदकी प्राप्ति हुआ करती है । अथवा अंत शब्दका अर्थ मरण भी होता है । सो भी यहां घटित हो सकता है क्योंकि पंडितपंडित मरणके द्वारा ही निवृतिकी प्राप्ति हुआ करती है।
भावार्थ - स्वाध्यायसे धर्मध्यान और उससे पृथक्त्ववितर्कवीचार नामका शुक्लध्यान और उससे एकत्ववितर्काचार नामका दूसरा शुक्लध्यान निष्पन्न हुआ करता है । क्योंकि हेतुहेतुमद्भाव ऐसा ही है । द्वितीय शुक्लध्यान होनेपर अनन्तज्ञानादिचतुष्टयरूप जीवन्मुक्ति और उसके बाद क्रमसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति
और व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामके दोनो सातिशय शुक्लध्यान प्रवृत्त हुआ करते हैं। इसके भी वाद-सबके अंतमें समस्त कौका क्षय होजानेपर अनन्तसम्यक्त्व प्रभृति अष्टगुणविशिष्ट अवस्थाविशेषरूप परममुक्तिकी सिद्धि हुआ करती है। इस प्रकार श्रुतभावनाका परम्परा फल मोक्ष है।
॥ इति ज्ञानाराधनाधिगमो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥
॥ इति भद्रम् ॥
अध्याय