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बनगार
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अध्याय
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चारित्रमप्यचारित्रं सम्यग्ज्ञानं विना तथा ॥ ३ ॥
जिस प्रकार सम्यग्दर्शनके विना ज्ञान ज्ञान नहीं, अज्ञान ही रहता है; उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानके विना चारित्र भी अचारित्र ही माना जाता है ।
भावार्थ – सम्यक्चारित्रकी समृद्धि में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये दो प्रधान कारण हैं; यह बात पहले लिखी जा चुकी है । इसीका समर्थन करनेकेलिये यहां कहते हैं कि इन दोनों के बिना चारित्र में समीचीनता भी उत्पन्न नहीं हो सकती। क्योंकि चारित्रमें समीचीनता उत्पन्न कर उसको सफल बनानेके प्रति सम्यग्ज्ञानमें जो कार्यकारिणी शक्ति है वह सम्यग्दर्शनके बिना स्फुरायमान नहीं हो सकती ।
इसी बातका फिर भी समर्थन करते हैं:--
हितं हि स्वस्य विज्ञाय श्रयत्यहितमुज्झति । तद्विज्ञानं पुरश्वारि चारित्रस्याद्यमानतः ॥ ४ ॥
मुमुक्षु जीव आत्माहित - सम्यग्दर्शनादिको अच्छी तरह समझ करके ही उसके सेवन करनेमें और अहित - मिथ्यादर्शनादिकको जानकर उसके छोडने में प्रवृत्त हुआ करता है, - - अन्यथा नहीं । यह प्रवृत्ति ही • सम्यक् चारित्र है जो कि समस्त कमोंको निर्मूल करनेवाली है । अत एव यह बात स्वयं सिद्ध होजाती है कि हित और अहितके ज्ञानपूर्वक ही परमार्थतः चारित्र हुआ करता है । और ऐसा होनेपर ही वह अपना कार्य - कर्मक्षय सम्पन्न कर सकता है । अत एव सम्यग्दर्शन और ज्ञानका आराधन करके ही चारित्रके आराधन करमें प्रवृत्त होना चाहिये ।
सम्यग्ज्ञानपूर्वक चारित्रका पालन करनेमें प्रयत्न करनेवाला समस्त जगत्पर विजय प्राप्त करलेता है, ऐसा निरूपण करते हैं :--
धर्म ०.
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