________________
बनगार
२८.
जिन मनुष्योंके हृदयमें मुख्य अथवा आरोपित प्राणियोंके त्राणरूप करुणापरिणाम नहीं हैं उनके समीचीन चारित्र किस तरह हो सकता है ! क्योंकि इस चारित्ररूप धर्मका मूल दया है। जो व्यक्ति जन्तुओंसे द्रोह करता है-उनको कष्ट देता अथवा उनका बध करना चाहता है उसका कोई भी काम कल्याणकर नहिं हो सकता।
भावार्थ-दयाशून्य व्यक्तिके स्नान देवार्चन और दानाध्ययनादिक सभी कार्य धर्म या कल्याणके कारण नहीं हो सकते । मूलके विना फल किम तरह प्राप्त हो सकता है ? नहीं हो सकता।
सदय और निर्दय व्यक्तिमें कितना अन्तर है सो बताते हैं ।
दयालो'व्रतस्यापि स्वर्गतिः स्याददुर्गतिः।।
वतिनोपि दयोनस्य दुर्गतिः स्याददुर्गतिः ॥ ७ ॥ दयालु पुरुष यदि व्रताचरण नहीं भी करता तो भी उसकेलिये स्वर्गति अदुर्गति-सहज है। व्रतरहित भी सदय व्यक्तिको देवपर्याय अथवा वैसी ही और कोई भी अन्य उत्कृष्ट अभ्युदयकी प्राप्ति कष्टसाध्य नहीं-सुलभ है। एवं. इसके विरुद्ध जो व्रतोंका तो पालन करता है देवार्चन या उपवासादिक तो खूब करता है किंतु दयासे शून्य है-जिसका हृदय मदय नहीं है तो, उसकेलिये दुर्गति नरकादिक पर्याय अदुर्गति-सुलभ हैं।
भावार्थ-सदय और निर्दयमें यही अंतर है कि पहलेको तो विना साधन किये भी उत्तम फल प्राप्त हो सकता है और दूसरेको साधन.करनेपर भी उत्तम फल प्राप्त नहीं हो सकते; किंतु उल्टा फल प्राप्त होजाता है।
निर्दय व्यक्तिके तपश्चरणादिक व्यर्थ हैं, और दयालुको पालन न करनेपर भी उनका फल प्राप्त होता है, यही बात दिखाते हैं:
तपस्यतु चिरं तीव्र व्रतयत्वतियच्छतु । निर्दयस्तत्फलैर्दीनः पीनश्चैकां दयां चरन् ॥८॥
अध्याय
२८०