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बनगार
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त्रगण -उपकार करनेवाले भी डरते हैं। क्योंकि वे सोचते हैं कि कहीं हमारे उपकारका बदला उल्टा ही न निकले। .ठीक ही है जो बालक है वह भी-सांसारिक, व्यवहारको न जाननेवाला छोटासा बच्चा भी “अष्टिसिद्धि के लिये अमुक कार्यमें मैं जो प्रवृत्ति कर रहा हूं उसमें मेरे प्राण रहेंगे या जायगे" इस तरहके संदेहको छोडकर अपना इष्ट विषय ही प्राप्त करना चाहता है। ............ .....
भावार्थ --दयालुके पास जानेमें प्राणोंका संदेह नहीं है और सिद्धिकी आशा है। किंतु निर्दयके पास यह बात नहीं है। उसका स्वभाव दयालुसे उल्दा ही है। अत एव उससे सब डरते हैं।
दयाद्रं मनुष्यपर यदि कोई किसी प्रकारके दोषका आरोप लगाता है तो उससे उसका कुछ अपकार नहीं होता किंतु उल्टे उससे अनेक प्रकारके उपकार होते हैं, यही बात दिखाते हैं -
क्षिप्तोपि केनचिद्दोषो दयादें न प्ररोहति ।
तका तृणवत्किंतु गुणग्रामाय कल्पते ॥ ११ ॥ जिस प्रकार. छाछसे भीगी हुई जमीनपर तृणका अंकुर ऊग नहीं सकता उसी प्रकार दया-जिसका हृदय सदा करुणापरिणामोंसे मृदु रहा करता है उसपर यदि कोई असहिष्णु व्यक्ति प्राणिवध झूठ चोरी या पिशुनता आदि अपवादों से किसी भी प्रकारका आरोप लगावे तो वह ऊग नहीं सकता-ठहर नहीं सकता--
अध्याय
१-न विरोहंति गुदजाः पुनस्तक्रसमाहताः । निषिक्तं तद्धि दहति भूमावपि तृणोपलम् ॥
कोई भी रोग छाछका सेवन करनेपर अंकुरित-उत्पन्न नहीं होसकते । यदि भूमिपर उसको सोचा जाय तो वह वहांकी घासको भी जलादेती है।
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