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भनगार
निर्दय व्यक्ति चिरकालतक तपश्चरण करे-सैकडों वर्षतक अनशन अवमौदर्य या वृत्तिपरिसंख्यानादिक. करता रहे, तथा ब्रतोंका भी वह चाहे जितना-घोर अनुष्ठान करे. एवं दान भी बह चाहे जितना ही क्यों न दे फिर भी वह उन कार्यों-तपश्चरण व्रत दानादिकोंके फलसे दीन -रिक्त-कोरा ही रहता है। किंतु इसके विरुद्ध तपश्चरणादिरहित परंतु एक दयाका पालन-सेवन करनेवाला उन (दानादि के फलोंसे पीन-पुष्ट होजाता है।
जिसका हृदय सदा दयासे आर्द्र रहा करता है और जो नृशंस-क्रूर व्याक्त है उन दोनों ही का सिद्धिकेलिये क्लेश उठाना व्यर्थ है। यही बात बताते हैं:
मनो दयानुविद्धं चेन्मुधा क्लिश्नासि सिद्धये ।
मनोऽदयानुविद्धं चेन्मुधा क्लिश्नासि सिद्धये ॥५॥ हे मुमुक्षो ! भन्ध ! यदि तेरा मन दयासे अनुविद्ध है, यदि उसमें करुणापरिणामोंकी भावना दी गई है तो सिद्धिकेलिये जो तू इतना क्लेश उठाता है सो व्यर्थ है। क्योंकि सिद्धिका सिद्ध होना एक दयाभावपर ही निर्भर है । इसी प्रकार तेरा यदि वह मन दयासे रहित है तो भी सिद्धिकेलिये तेरा क्लेश उठाना व्यर्थ ही है । क्योंकि निर्दय व्यक्तिके केवल कायक्लेशादिकसे वह सिद्धि सिद्ध नहीं हो सकती।
विश्वास और त्रासका मूल क्रमसे सदय और निर्दय परिणाम हैं ऐसा सूचित करते हैं - ...... "! विश्वसन्ति रिपवोपि दयालोवित्रसान्त सुहृदोप्यदयाच्च ।
___प्राणसंशयपदं हि विहाय स्वार्थमीप्सति ननु स्तनपोपि ॥१०॥ दयापर प्राणीका रिपुगण-अपकार करनेवाले भी विश्वास करते हैं। किंतु जो निर्दय है उससे मिअ. ध ३६.
अध्याय