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बनगार
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अध्याय
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देहेष्वात्ममतिर्दुःखमात्मन्यात्ममतिः सुखम् । इति नित्यं विनिश्चिन्वन् यतमानो जगज्जयेत् ॥ ५ ॥
जो मुमुक्षु सदा इस बात का निश्चय रखता है कि शरीर में आत्मबुद्धि दुःख या दुःखका कारण है। और आत्मामें आत्मबुद्धि रखना सुख अथवा सुखका कारण है, वही अपने उस निश्चयके अनुसार परद्रव्य से निवृत्त और शुद्ध निज आत्मस्वरूपमें प्रवृत्तिरूप प्रयत्न कर समस्त जगत्पर विजय - सर्वज्ञता प्राप्त कर लेता है ।
भावार्थ -- शरीर औदारिकादिक पांच प्रकारके हैं। इनमेंसे किसीके औदारिक तैजस कार्माण अथवा वैयिक तैजस कामण ये तीन होते हैं और किसीके औदारिक आहारक तेजस कार्मण इस तरह चार होते हैं । इनमेंसे स्व या पर जहां जिसके जैसे सम्भव हों उनमें आत्मप्रत्ययका होना- ये ही मैं हूं और मैं ही ये हैं- इस तरहकी कल्पना ही दुःख - संसार अथवा उसका कारण है । और उसके विरुद्ध आत्मा में आत्मप्रत्ययका होना- मैं मैं हीं हूं और पर पर ही है - इस तरहकी कल्पना सुख तथा सुखका कारण है। ऐसा निश्चय होना ही सम्यग्ज्ञान है। जो मुमुक्षु अपने इस भेदविज्ञान के अनुसार चारित्रका आराधन करता है वही चारित्रको सफल बना सकता और सर्वज्ञता प्राप्त कर सकता है ।
सम्यक चारित्ररूपी छायावृक्षका मूल दया है ऐसा पहले बता चुके हैं। इसी बातका विशेष रूपसे समर्थन करते हैं और बताते हैं कि विना दयाके सच्चारित्र हो ही नहीं सकताः
यस्य जीवदया नास्ति तस्य सच्चरितं कुतः ।
न हि भूतां कापि क्रिया श्रेयस्करी भवेत् ॥ ६॥
धर्म
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