________________
बनगार
२७७
अध्याय
४
परमावगाढसुदृशा परमज्ञानोपचारसंभृतया । रक्तापि नाप्रयोगे सुचरितपितुरीशमेति मुक्तिश्रीः ॥ २ ॥
परमज्ञान- केवलज्ञानरूपी उपचार - सत्कारके द्वारा संभृत-सत्कृत - अच्छी तरह पुष्ट परमावगाढ सम्यग्दर्शन- अचल क्षायिक सम्यक्त्व वृत्तिरूप अतिचतुर दूतके द्वारा अनुकूल की गई भी मुक्तिश्री परममुक्ति - शरीररहित अनंतसम्यक्त्वादि गुणसंपत्तिको जबतक समस्त मोहनीय कर्मके क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण निरंतर निर्मल स्वरूपके धारण करनेवाला आत्यंतिक समीचीन क्षायिक चारित्ररूपी पिता दान नहीं करदेता तब तक वह ( गुण(संपत्ति) जीवन्मुक्त के पास गमन नहीं करती ।
भावार्थ- जिस प्रकार अनेक सत्कारोपचार के द्वारा जिसका मनोरथ अच्छी तरह पूर्ण करदिया गया है। ऐसी अतिचतुर दूतीके द्वारा संभोग केलिये आकुलित भी कुलकन्या तबतक अपने उस अभीष्ट नायिकसे अभिगमन नहीं करती जबतक कि उसका पिता उसको दान नहीं कर देता । इसी प्रकार केवलज्ञानने जिसमें अत्यंत अतिशय उत्पन्न करदिया है ऐसे परमावगाढ सम्यग्दर्शनने यद्यपि उस परममुक्तिको अवश्यप्राप्य बनादिया है; फिर भी जबतक अघाति कमोंकी निर्जराके कारणभृत समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामका परम शुक्लध्यान होकर क्षायिक चारित्र संपूर्ण नहीं होजाता तबतक अपने उस जीवन्मुक्तरूपी शान्तोदात्त नायिकका वह आलिंगन नहीं करती । इस कथनसे यह बात स्पष्ट होजाती है कि परममुक्तिका साक्षात् कारण परम चारित्रका आराधन ही है।
ऊपर पहले श्लोक में सम्यग्दर्शनके द्वारा स्फुरायमान होनेवाले श्रुतज्ञानके विषय में जो कुछ कहा है उसका यहां विशेष समर्थन करते हैं: ---
ज्ञानमज्ञानमेव स्याद्विना सद्दर्शनं यथा ।
धर्म ०
२७७