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बनगार
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मनुष्यकी तरह उसको सुन भी नहीं सकता । जिसका कि नियन्त्रण न करनेपर वचन और कायका नियन्त्रण करनेवालेका भी वृत्त-बत समिति और गुप्तिरूप समीचीन भी चारित्र इस तरहसे निकल जाता है-नष्ट हो जाता है जैसे कि चलनी मेंसे जल निकल जाया कर तो है ।
और जिसका कि वश करना साधारण प्राणियोंकीलये बहुत ही काठन है। ऐसे भी मनको जो मुमुक्षु प्रमादचर्या कलुषता तथा विषयोंकी लोलुपता आदि व्यापारोंसे हटाकर और दुर्व्यवहार या दुर्जन पुरुषकी तरहये उसका ज्ञानसंस्काररूपी दण्डके बलसे दमन करके तथा उसको लज्जाको प्राप्त कराकर, एवं खरीदे हुए दास
गुलामकी तरह वशमें करके प्रशस्त गगादिरूप भावोंसे युक्त कर और एकाग्र-अकम्प या निश्चल बनाकर स्वाध्यायमें-वाचना पृच्छना आदिरूप तपमें लगा देता है वही पुरुष उत्कृष्ट चारित्रका-जिसका कि साधारण लोगोंकी तो बात ही क्या पूर्ण चक्रवर्ती भी पालन नहीं कर सकते, उस व्रत समिति और गुप्तिरूप तथा अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिरूप संयमका अच्छी तरह पालन कर सकता है ।
भावार्थ -मन यद्यपि अत्यंत चंचल है फिर भी उसका निग्रह करके यदि उसको स्वाध्यायरूप उपयोगमें लगाया जाय तो उससे अत्यंत दुर्धर भी संयमकी सिद्धि हो सकती है और सुखसवित्तिकी प्राप्ति हो सकती है।
ध्यानको छोडकर बाकी जितने भी तप हैं उन सबमें स्वाध्याय ही एक ऐसा है जो कि आत्माकी उत्कृष्ट शुद्धिका कारण है । अत एव समाधिमरणकी शुद्धिकेलिये उसको नित्य ही करना चाहिये । ऐसा उपदेश देते हैं
१-तितओरिव पानीयं चारित्रं चलचेतसः । वचसा वपुषा सम्यक्कुवतोऽपि पलायते ।
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वचन और शरीरके द्वारा भले प्रकार चारित्रका पालन करते हुए भी चंचलचित्तवाले मनुष्यसे वह इस तरह पलायमान हो जाता है, जैसे कि चलनीसे जल ।