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धनमार
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अध्याय
यत्रायते यतवचो वपुषोपि वृत्तं, क्षिप्रं क्षरत्यवितथं तितवारिवाम्भः ॥ २१ ॥
व्यावशुभ वृत्तितोसुनयवन्नीत्वा निगृह्य त्रां, वश्यं स्वस्य विधाय तद्भुतकवत्प्रापय्य भावं शुभम् । स्वाध्याये विदधाति यः प्रणिहितं चित्तं भृशं दुर्धरं, चक्रेशैरपि दुर्वहं स वहते चारित्रमुच्चैः सुखम् ॥ २२ ॥
जो मन पतले चिकने चमकीले और चपल शरीरके धारण करनेवाले मत्स्यकी तरह सहसा पकडने में नहीं सकता । जिसका दुष्टस्वभाववाले घोडेकी तरह इष्ट और शिष्ट मार्गपर चलाना अत्यंत कठिन है। जो पर्वत से गिरनेवाली नदियोंके समूहकी तरह वांछित किंतु निम्न-नीच स्थान-विषयकी तरफ गिरनेसे रोका नहीं जा सकती । जो परमाणु की तरह वेरोक होकर अत्यंत दूरवर्ती देशों में भी जाकर प्राप्त हो जाता है। जो वायुकी तरह शीघ्र ही चारो तरफ फैल जाता और मेघोंकी तरह नाना प्रकारके विकल्पों - चिन्ताओंके जालसे समस्त जगतको व्याप्त कर शीघ्र ही नष्ट हाजाता । जो रागसे आतुर - इष्ट विषयोंकी रतिसे आक्रांत होकर वस्तुओंके यथार्थ स्वरूपको वचनशून्य - गूंगे मनुष्यकी तरह कह नहीं सकता, और अंधेकी तरह देख नहीं सकता, तथा बधिर
१ – संसारी जीवोंका' मन प्रायः ऊंचे--अच्छे कामोंकी तरफ से गिरकर - हटकर नीच विषयों की तरफ ही जाया
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करता है । और सहसा उसकी वह उन्मुखता छूट नहीं सकती । २- जिस प्रकार मेघ अनेक तरहके आकार रंग और प्रकार मन भी कल्पनाराजाके द्वारा सशीघ्र हां विलीन होजाता है ।
परिमाण आदिके द्वारा आकाशको व्याप्त करता और शीघ्र ही मस्त जगत्को व्याप्त करता - आशाओं और चिन्ताओंका विषय
नष्ट होजाता है उसी बनाता और फिर
धर्म -
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