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बनगार
और अलोक दोनोंक ऊपर, जिनका कि स्वरूप पहले बताया जाचुका है, अपना प्रकाश डालता है-उनको अच्छी तरहसे विषय करता है -जानता है। जिस प्रकार सूर्य अपने वैभवके द्वारा जगतजनोंके मनमें अपूर्व चमत्कार उत्पन्न करता है उसी प्रकार ज्ञान भी करता है । इसी तरह जिस प्रकार सूर्य जगतको पवित्र करने वाली कीर्ति भक्त पुरुषोंके द्वारा कीगई स्तुतिको विस्तृत करता है उसी प्रकार ज्ञान भी लोकोंके मलको दर करनेवाली धर्मदेशनारूप वाणीको फैलाता है । इस तरह बिलकुल समानताको धारण करनेवाला यह ज्ञानरूपी सूर्य आकाशके समान किसी ही पवित्रात्मामें प्रकाशित-उदित हुआ करता है।
भावार्थ-दोषोच्छेदकत्वादि विविध गुणोंसे युक्त सम्यग्ज्ञानका उत्पन्न होना बहुत ही कठिन है । वह एक अपूर्व प्रकाशके समान है। अत एव जिस प्रकार सूर्य किसी मलरहित विशेष नभोदेशमें ही उदयको प्राप्त हुआ करता है, उसी प्रकार उक्त अनेक गुणोंसे युक्त सम्यग्ज्ञान भी किसी ही पवित्रात्मा-सम्यग्दृष्टिके उत्पन्न हुआ करता है । इस तरहसे ज्ञानरूपी प्रकाशसे ही सुमुक्षुओंकी अमीष्टसिद्धि हो सकती है। अत एव उनको इसकी आराधना करनी चाहिये। ज्ञानकी साधन और निस्तरण नामकी आराधनाका भी स्वरूप बताते हैं:
निर्मथ्यागमदुग्धाब्धिमुद्धत्यातो महोद्यमाः।
तत्त्वज्ञानामृतं सन्तु पीत्त्वा सुमनसोऽमराः ॥ १९ ॥ मन्दराचलसे क्षीरसमुद्रकी तरह शब्दतः और अर्थतः किये गये आक्षेप और समाधानक द्वारा आगम - द्वादशांग श्रुतका भले प्रकार आलोडन करके उससे तत्त्वज्ञान -परमौदासीन्य ज्ञानरूपी अमृतको निकाल कर
अध्याय
१--तनि जगत्के आधिपत्य अथवा प्रभावविशेषको वैभव कहते हैं ।
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