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नारूपी बल्लभाको, जो कि अपने स्वामीको अत्यंत आनन्दका कारण है, ज्ञानावरण कर्मके उदयसे, जो कि एक अपकारके ही करनेमें उद्यक रहनेके कारण शत्रके समान है, प्राप्त हुए संदेह मोह और भ्रम-संशय अनध्यवसाय और विपर्याससे, जो कि जीवोंके पुरुषार्थों का ध्वंस करने में ही तत्पर रहा करते हैं, बचाकर और परमोत्कृष्ट हर्षके साथ अपने चित्स्वरूपमें एकत्व परिणतिरूप आश्लेषको प्राप्त कराकर कुछ कालकेलिये निर्विकल्प वासनाओंसे रहित होकर- यह क्या है, किससे सिद्ध होता है, कहां रहता है, कव होता है, इत्यादि अन्तर्जल्पसे सम्बन्ध रखनेवाली अनेक उत्प्रेक्षाओंके जालसे च्युत होकर परम आनन्दका भोग कर लेता है। उसकी दूसरे लोग, जो कि केवल नयका ही अभ्यास करनेवाले हैं-ज्ञानाराधनासे रहित केवल कायक्लेशादिक अनुष्ठान करनेमें ही जो चिरकाल तक परिश्रम करनेवाले हैं, प्रशंसा किया करते हैं। यह बडा अच्छा तप करनेवाला है ऐसा कहकर उसकी अनुमोदना किया करते हैं, और वैसा ही स्वयं होना चाहते हैं । क्योंकि इस तरह ज्ञानाराधन करनेवाला तपस्वी तत्क्षण-बहुत ही जल्दी अशुभ कर्मोंके संघातको निजीर्ण करदेता है। जैसा कि आगममें भी कहा है कि:
जं अण्णाणी कम्म खवेइ भवसयसहस्सकोडीहिं ।
तं णाणी तिहि गुत्तो खवेइ णिमिसद्धमित्तण ।। जिन कर्मोको अज्ञानी सैकडों हजारों अथवा करोडों भवमें यद्वा लाखो कोटि भवमें भी नहीं खपा स. कता, उन्ही कोको ज्ञानी आधे निमेषमात्रमें-बहुत ही थोडे कालमें तीनो गुप्तियोंको धारण कर खपा देता है।
भावार्थ-ज्ञानका आराधन किये विना तप भी सफल नहीं हो सकता । अत एव तपस्वियोंको उसका भी आराधन करना ही चाहिये । सम्यग्दर्शनकी तरह सम्यग्ज्ञानकी भी उद्योतादिक पांच आराधनाएं हैं। उनमेंसे आदिकी तीन आराधनाओंका स्वरूप यहांपर बताया है। ज्ञानावरण कर्मके उदयजतित संदेहादिकसे श्रुतभावनाके बचानेको उद्योत, परम प्रमोदके साथ चित्स्वरूपमें उस भावनाके एकत्वपरिणतिको प्राप्त कसदेनेको उद्यवन, और कुछ कालतक निर्विकल्प होकर उस भावनाके द्वारा परमानंदरूपसे ठहरनेको निर्वहण कहेत हैं।
अध्याय