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गा
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अध्याय
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वह विकल्पके निरूपणरूप है, और स्वयं [ श्रुतज्ञानी ] की जो उसके विषय में अज्ञान या विप्रतिपाले ही उसका निराकरण ही इसका फल हैं। भावश्रुतकेलिये निमित्तभूत जी वचन उसको द्रव्यश्रुत कहते हैं। इसकी परामैं भी कहते हैं। क्योंकि वह शब्दप्रयोगरूप है, और अपने विषयमें दूसरोंको जो अज्ञान या विप्रतिपत्ति है उसका निराकरण ही इसका फल वै ।
इस प्रकार भाव और द्रव्यकी अपेक्षा श्रुतके दो गेंद बतायें; किंतु उसके भी उत्तर मेंद होते हैं या नहीं ? इसके उत्तर में दोनोंके उत्तर भेदोका निरूपण करते हैं:
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तद्भावतो विज्ञतिघा पर्यायादिविकल्पतः ।
द्रव्यतोङ्गप्रविष्टाङ्गबाह्यभेदाद् द्विधा मतम् ॥ ६ ॥
भाव -- अन्तस्तत्वकी अपेक्षा जो श्रुतका भेद बताया है वह — मावश्रुत, पर्याय पर्यायसमास अक्षर अक्षरसमास इत्यादि बस प्रकारका है। और द्रव्य वहिंस्तत्वकी अपेक्षा जो भेद है वह - - द्रव्यश्रुत मूलमें दो प्रकारका है; अङ्गमष्टि और अङ्गवाद्य ।
भावार्थ - भावश्रुतके पर्यायादिक बसि भेद और द्रव्यश्रुतके मूल में उक्त दो भेद हैं; जिनमेंसे अंगविष्टके आचारांङ्ग सूत्रकृताङ्ग आदि बारह भेद और अङ्गवाद्य के सामायिक आदि चौदह भेद हैं। इनका विशेष स्वरूप आगमके अनुसार समझना चाहिये ।
sotryर्यातक सूक्ष्म निगोदिया जीवके, उत्पन्न होने के प्रथम समयमें जो ज्ञान होता है उसको प र्याय कहते हैं । इसका दूसरा नाम लब्ध्यक्षर भी है। जैसा कि आगम में भी कहा है:--
सूक्ष्मापूर्ण निगोंदस्य जातस्याद्यक्ष णेप्यदः
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