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बनगार
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र्यायसमास ज्ञान कहते हैं। इसके बाद एकअकार आदि अक्षरोंके अभिधेयके अवगमरूप जो ज्ञान है उसको अक्षरश्रुत कहते हैं। यह समस्त श्रुतके संख्यातवें भागमात्र है। क्योंकि पूर्ण श्रुतज्ञानके संख्यात ही अक्षर हैं। इसके ऊपर और पदज्ञानके पहले अक्षरवृद्धिके क्रमसे जो दो तीन चार आदि अक्षरोंके ज्ञानस्वभाव श्रुत बढता जाता है उसको अक्षरसमास कहते हैं। इसी तरह पद पदसमास आदि पूर्वसमासपर्यन्त भावभुतके बीसो भेदोंका स्वरूप आगमके अनुसार समझलेना चाहिये ।
श्रुतोपयोगकी विधि बताते हैं:
तीर्थादाम्नाय निध्याय युक्त्याऽन्तः प्रणिधाय च । श्रुतं व्यवस्येत् सद्विश्वमनेकान्तात्मकं सुधीः ॥ ७॥
बुद्धिधनके धारण करनेवाले भव्योंको तीर्थ-उपाध्यायसे आगमको ग्रहण करके और हेतुपूर्वक समझ करके तथा अन्तरङ्गमें भले प्रकार निश्चलतया धारण करके सद्-उत्पादव्ययधौव्ययुक्त और अनेकान्तात्मक-द्रव्यपर्यायस्वभाव विश्व -जीवादिक समस्त पदार्थों का अच्छी तरह निश्चय करना चाहिये ।
भावार्थ-गुरूपदेशद्वारा आगमसे तथा " पदार्थ अनेकांतात्मक हैं; क्योंकि वे सत् हैं। जो सत् नहीं होता वह अनेकांतात्मक भी नहीं होता, जैसे कि आकाशपुष्प " इत्यादि युक्तियोंसे जीवादि पदार्थोंका निश्चय करना चाहिये । इसीसे श्रुतोपयोगकी सिद्धि हो सकती है । और समस्त पदार्थोंका ज्ञान हो सकता है । क्योंकि श्रुतज्ञान परोक्षतया समस्त पदार्थोको प्रकाशित करता है । जैसा कि कहा भी है:
श्रुतं केवलबोधश्च विश्वबोधात्सम द्वयम् । स्यात्परोक्षं श्रुतज्ञानं प्रत्यक्षं केवलं फुटम् ।।
अध्याय.
अ.घ.३३