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अनगार
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समस्त पदार्थोके ज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनो समान हैं। अंतर इतना ही है कि | श्रूतज्ञान परोक्ष है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। तीर्थ और आम्नायपूर्वक श्रुतका अभ्यास करना चाहिये, ऐसा उपदेश देते हैं:
वृष्टं श्रुताब्धेरुद्धृत्य सन्मेधैभव्यचातकाः ।
प्रथमाद्यनुयोगाम्बु पिबन्तु प्रीतये मुहुः ॥ ८॥ समस्त विश्वका उपकार करनेवाले मेघोंके समान सत्पुरुषों-शिष्टों-भगव जिनसेन प्रभृति आचार्योंके द्वारा श्रुत-परमागम - द्वादशाङ्गरूपी समुद्रसे उद्धृत कर-निकाल कर वर्षाये हुए-उपदिष्ट प्रथमादि अनुयोग पुराणादि अर्थके प्रश्नोत्तररूपी जलका भव्यरूपी चातकोंको जिनको कि चिरकालसे सदुपदेशरूपी जल पान करनेकेलिये प्राप्त नहीं हुआ है। पुनः पुनः एवं प्रीतिपूर्वक पान करना चाहिये । क्योंकि वह जल उनकी तृष्णाके विच्छेद करनेका प्रधान कारण है।
भावार्थ-भगवजिनसेन प्रभृति आचार्योंने प्रथमानुयोगादिकमें जो कुछ कहा है वह भगवद्भाषित और गणधरग्राथत परमागममें कहे हुए पदार्थोंको ही कहा है। अत एव वह तीर्थ ओर आम्नायपूर्वक ही है । इसीलिये मुमुक्षु भव्योंको रुचि-समीचीन श्रद्धापूर्वक उस प्रथमानुयोगादि श्रुतका बारम्बार अभ्यास करना चाहिये ।
अनुयोग चार हैं -प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। इनमेंसे पहले प्रथमानुयोगके अभ्यास करने में भव्यों को नियुक्त होनेका विधान करते हैं। :
पुराणं चरितं चार्याख्यानं बोधिसमाधिदम् । सत्त्वप्रथार्थी प्रथमानुयोगं प्रथयेत्तराम् ॥९॥
अध्याय
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