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अनगार
हेय और उपादेयरूप समीचीन सबके प्रकाशको निरंतर चाहनेवाले भव्यको उस पुराण और चरिवरूप प्रथमानुयोगका अच्छी तरह प्रकाश करना चाहिये--दूसरे-करणानुयोगादिकी अपेक्षा अतिशय रूपसे अभ्यास करना चाहिये । क्योंकि दूसरे अनुयोगोंमें जिन जिन विषयोंका वर्णन किया गया है उन सबके प्रयोग दृष्टान्त आदिका अधिकरण यह प्रथमानुयोग ही है। जिसमें कि कल्पित विषयोंका नहीं किंतु अर्थ-परमार्थतः सद्भुत विषयों का प्रतिपादन किया जाता है; और जो कि बोधि-रत्नत्रय और समाधि--ध्यानका देनेवाला है। क्योंकि इसके सुननेसे जिनको रत्नत्रय प्राप्त नहीं हुआ है, उनको प्राप्त होता है और जिनको प्राप्त है उनका भले प्रकार निर्वहण होता है । इसी प्रकार उसके सुननेसे धर्मध्यान और शुक्लध्यानकी भी सिद्धि होती है । जो पहले होगया उसको--बीती हुई बातको पुराण कहते हैं। जिसमें ये बातें लिखी जाय उस ग्रंथको भी पुराण कहते हैं। अत एव वेसठ शलाकापुरुषोंकी कथाएं जिसमें लिखी गई हों उस महापुराण । हरिवंशपुराण पद्मपुराण आदि शास्त्रोंका नाम पुराण है । पुराणमें आठ बातोंका वर्णन होता है, जैसा कि आगममें भी कहा है:
लोको देशः पुरं राज्यं तीर्थ दानं तपोद्वयम् ।
पुराणस्याष्टधाख्येयं गतयः फलमित्य पि ॥ लोक देश नगर राज्य तीर्थ दान और दो प्रकारका तप इन आठ विषयोंका पुराणमें निरूपण किया जाता है । इसके सिवाय गतियों तथा पुण्यपापके फलका भी वर्णन होता है ।
लोकमें भी कहा है कि
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अध्याय
सर्गश्च प्रतिसगश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चेति पुराणं पञ्चळक्षणम् ॥