________________
अनगार
२६०
अध्याय
३
सर्ग और प्रतिसर्ग तथा वंश औरै मन्वन्तर-कुलकरोंका मध्यकाल एवं वंशों में क्रमसे चला आया हुआ चरित्र, ये पुराणके पांच लक्षण हैं ये पांच बातें पुराण में होनी चाहिये ।
इस प्रकार जिसमें ये सब बाते पाई जांय उस प्रथमानुयोगको पुराण और जिसमें एक पुरुषके आश्रयसे कथा लिखी जाय - जिसमें एक पुरुषके चरित्रका वर्णन हो; जैसे चंद्रप्रभचरित्र प्रद्युम्नचरित्र यशोधरचरित्र इत्यादि उसको चरितरूप प्रथमानुयोग कहते हैं ।
करणानुयोग के अभ्यास करनेकी तरफ भव्यों को प्रयुक्त करते हैं:--
चतुर्गतियुगावर्तलोकालोकविभागवित् ।
हृदि प्रणेयः करणानुयोगः करणातिगैः ॥ १० ॥
करण- इन्द्रियोंका अतिक्रमण करके रहनेवाले जितेंद्रिय भव्योंको करणानुयोग अवश्य ही हृदयमें धारण करना चाहिये ।
गतिनामकर्मके उदयसे होनेवाली जीवकी पर्याय विशेषको गति कहते हैं। उसके चार भेद हैं- नारक तैo मानुष और दैव । उत्सर्पिणीरूप काल के सुमसुमा आदि युगोंके आवर्त - परिवर्तनको युगावर्त कहते हैं । उसके बाहर जितना अनन्त आकाशमात्र है उसको अलोक कहते हैं । इन चारो गतियों तथा युगात और लोकालोके विभागको जो जाननेवाला है उस ज्ञानपरिणत आत्माको करणानुयोग कहते हैं ।
भावार्थ - यहां पर भावश्रुतकी अपक्षासे ज्ञानरूप ही करणानुयोगका लक्षण बताया है; किन्तु द्रव्य श्रुत
धर्म •
२६०