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बनगार
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ग्रंथ-संदर्भ और अर्थ-वाच्य पदार्थ तथा उभय-ग्रंथ अर्थ दोनो इनसे पूर्ण और आगममें कहे हुए नियमाविशेषोंसे युक्त तथा गुरु आदिके निन्हवसे रहित श्रुत-जिनागमका विनय-माहात्म्यका उद्भव-प्रकाश करनकोलिये किये गये प्रयत्नविशेषको और बहुमान-बडे भारी आदर सत्कारको बढाते हुए मुमुक्षुओंको योग्य कालमें-आगममें कहे गये संध्या ग्रहण आदिसे रहित समयमें अभ्यास करना चाहिये।
भावार्थ-जिसके द्वारा श्रुतकी भले प्रकार प्राप्ति हो सके उस उपायविशेषको विनय कहते हैं । उसके आठ भेद हैं-१ ग्रंथपूर्णता २-अर्थपूर्णता, ३-उभयपूर्णता, ४-सोपधानता, ५-आनन्हव, ६-विनय, ७-बहुमान, ८-और योग्य काल ।
इस प्रकार ज्ञानाराधनाका वर्णन किया। किंतु सम्यक्त्वाराधनाके अनंतर उसके वर्णन करनेका क्या हते है सो बताते हैं:
आराध्य दर्शनं ज्ञानमाराध्यं तत्फलत्वतः। सहभावेऽपि ते हेतुफले दीपप्रकाशवत् ॥ १५ ॥
मुमुक्षुओंको सम्यग्दर्शनका आराधन करके ही ज्ञान-श्रुतज्ञानका आराधन करना चाहिये । क्योंकि ज्ञान सम्यग्दर्शनका फल है । ज्ञानकी समीचीनता सम्यग्दर्शनके ही अधीन है। अत एव वह उसका कार्य है। आगममें भी सम्यग्दर्शनकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि " णाणं सम्मं खु होदि सदि जमि" अर्थात् जिसके होनेपर ज्ञान समीचीन होजाता है। अत एव सम्यक्त्वका आराधन करके ही ज्ञानका आराधन करना चाहिये ।
यहां प्रश्न हो सकता है कि गांक वांये और दांये दोनो सीगोंकी तरहसे एक ही कालमें उत्पन्न होनेवाले ज्ञान और सम्यक्त्वमें कार्यकारणभाव कैसा ? इसका उत्तर देते हैं किः--
बध्याय
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