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अनगार
शुद्ध सम्यग्दर्शनके धारण करनेवालोंको भय आशा स्नेह लोभ किसी भी तरहसे कुदेव कदागम और कुलिङ्गियोंको प्रणाम और उनका विनय न करना चाहिये । इसी बातको लेकर ठाकूरने भी कहा है कि:
लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे ।
नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ॥ सम्यग्दृष्टियोंको लोक कुशास्त्र कदागम और कुदेवमें नित्य ही अमृढ दृष्टि रखनी चाहिये ।
छह अनायतनोंके त्याग करदनसे जिनकी दृष्टि-श्रद्धा अभिभूत नहीं होती उनको और उस श्रद्धाको भी अमृढ दृष्टि कहते हैं। इससे दृष्टिकी अमृढताका सम्बन्ध अनायतनत्यागसे है। अत एव इस प्रकरणमें जो छह अनायतनोंके त्यागका उपदेश दिया गया है उससे स्मृतियोंमें प्रसिद्ध सम्यक्त्वके पांचवें अमूढदृष्टित्व गुणका भी यहांपर संग्रह करलेना चाहिये । क्योंकि वैसे उसकी विशुद्धिवृद्धिकेलिये सिद्धांतमें चार ही गुण बताये हैं, जैसा कि आराधनाशास्त्रमें कहा है:--
उवगृहणठिदिकरणं वच्छल्लपहावणा गुणा भणिया । सम्मतविसुद्धीए उवगृहणगारया चउरो॥
सम्यक्त्वकी' विशुद्धिकेलिये ये चार गुण बताये हैं-उपगृहन स्थितीकरण वात्सल्य और प्रभावना । इन उपगृहनादिकसे जो विपरीत भाव हैं वे ही चार सम्यग्दर्शनके दोष होजाते हैं । अत एव सम्यक्त्वके जो पच्चीस दोष दिखाये हैं वे विस्ताररुचि रखनेवाले शिष्योंकी अपेक्षासे हैं । यथाः--
बध्याय
१-श्री अमृतचन्द्र सूरिके ग्रन्थका उल्लेख करते हुए उन्हें ग्रंथकर्ताने कई जगह ठकुर या ठाकुर लिखा है. हिन्दी भाषामें ऊंचे अधिकारवाले और उत्तम वशोंके या राजघरानोंके क्षत्रियोंको अब भी ठाकुर कहते हैं.