________________
अनगार
२४१
अध्याय
२
• जिस प्रकार किसी बीजके अन्तर्भाग और बहिर्भागमें व्याप्त होजानेवाला संस्कार केवल उस बीजमें ही नहीं रहजाता किंतु उसके फलतकमें उसका सम्बन्ध जाता है। उसी प्रकार जैसा कि “ मिथ्याहक यो न तत्त्वं श्रयति " - इत्यादि प्रबंधमें कहा गया है उसी तरहसे निर्मल बनाकर, और आत्माके साथ उसको अच्छी तरहसे ear रूपमें मिश्रित करके अपनी आत्माको दर्शनविशुद्धिमय बनोकर जो जीव उस सम्यग्दर्शनको निराकुaaer धारण करता और नित्य ही उसको सिद्ध करता पूर्णतया पालता है उस जीवका वह चार उपायोंके द्वारा संस्कृत हुआ सम्यग्दर्शन उसी भवमें नहीं किन्तु भवान्तरमें भी अनुगमन करता है। उस जीवके साथ जन्मान्तरोंमें सम्यग्दर्शन तबतक साथ जाता है जबतक कि उस जीवको मोक्ष प्राप्त नहीं हो जाती ।
भावार्थ - सिद्धांत में सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र और तप इनमेंसे प्रत्येककी पांच पांच आराधनाएं बताई हैं, यथा:
उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं । दंसणणाणचरित्तत्तवाण माराहणा भणिया ||
दर्शन ज्ञान चारित्र और तप इनमें से प्रत्येककी उद्योतन उद्यवन निर्वहण साधन और निस्तरण ये पांच पांच आराधनाएं बताई हैं । प्रकृतमें सम्यग्दर्शनकी चार आराधनाओंका वर्णन करके इस पद्य में पांचवीं आराधनाका भी स्वरूय बताया है। मरणपर्यंत सम्यग्दर्शनको न छोड़कर उसके पालन करनेको पांचवी आराधना कहते हैं । इन आराधनाओंका फल यही है कि इनसे संस्कृत हुआ सम्यग्दर्शन मोक्षतक जीवके साथ रहता है ।
क्षायिक और दूसरे प्रकारके - औपशमिक अथवा क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन इन दोनों में परस्पर साध्यसाधनभाव है; यह बात बताते हैं:
१ - पहली उद्योतन आराधना । २ दूसरी उद्यवन आराधना । ३ तीसरी निर्वहण आराधना । ४ चौथी साधन आराधना । ५ पांचवी निस्तरण आराधना । अ. घ. ३.१
धर्म
२४१