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नगार
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पश्यन्त्येव प्रस्फुटानन्तधर्म स्वात्मद्रव्यं शुद्धचिन्मात्रमन्तः ॥ स्यात्कार-स्याद्वादरूपी श्रीवास-लक्ष्मीके निवासके अधीन नयोंके द्वारा आत्मद्रव्यको जिस प्रकारसे देखते हैं उसी प्रकारके वे प्रमाणके द्वारा भी अन्तरङमें उस निज आत्मद्रव्यको वैसा ही-अच्छी तरह स्फुट अनन्तधर्मात्मक और शुद्ध चिन्मात्र देखते हैं। अर्थात् प्रमाणके द्वारा शुद्ध निज चिन्मात्रका दर्शन होना भी स्थाद्वादसे सम्बद्ध नयोंके अधीन है, जो कि श्रुतज्ञानात्मक हैं । अत एव मुमुक्षुओंको पहले पारमार्थिक शब्दब्रह्म - श्रुतज्ञानका ही आराधन करना चाहिये ।
श्रुतका आराधन परंपरासे केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है; यह बताते हुए उसका आराधन करनेलिये मुमुक्षुओंको फिरसे अच्छी तरह उत्साहित करते हैं:
कैवल्यमेव मुक्त्यङ्गं स्वानुभूत्यैव तद्भवेत् ।
सा च श्रुतैकसंस्कारमनसातः श्रुतं भजेत् ॥ २॥ मुक्तिका उपाय कैवल्य है । असहाय ज्ञान-केवलज्ञान ही मोक्षका साक्षात् कारण है। और कैवल्य शुद्ध निजात्मस्वरूपकी अनुभूतिसे ही हो सकता है । तथा स्वानुभूति उस अन्तःकरणके द्वारा ही हो सकती है कि जिसमें श्रुत-श्रुतज्ञानका उत्कृष्ट खास संस्कार किया गया हो । अत एव मुमुक्षुओंको श्रुतका आराधन करना चाहिये।
भावार्थ- श्रुत परंपरासे मोक्षका कारण है अत एव मोक्षके अभिलाषियोंकेलिये वह सबसे पहले आराध्य है।
१-शब्दात् पदप्रसिद्धिः पदसिद्धरर्थनिर्णयो भवति ।
अर्थात् तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात् परं श्रेयः॥ ..
अध्याय
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