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अनगार
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अध्याय
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नमें श्रुतका संस्कार होजानेपर ही स्वसंवेदनरूप उपयोग के द्वारा शुद्ध चिद्रूपताका परिणमन हो सकता है । यह बात : दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करते हैं:--
श्रुतसंस्कृतं स्वमहसा स्वतत्त्वमाप्नोति मानसं क्रमशः ।
विहितोषपरिष्वङ्गं शुद्धयति पयसा न किं वसनम् ॥ ३ ॥
श्रुतके द्वारा संस्कृत हुआ मन क्रमसे स्वसंवेदन के द्वारा शुद्ध निजात्मस्वरूपको इस तरह प्राप्त हो जाता है जिस तरह कि उप - एक विशेष खारी मट्टी (खर के द्वारा संश्लिष्ट - सोंदाया हुआ वस्त्र जलसे शुद्ध- स्वच्छ हो जाया करता है। कहा भी है कि:
अविद्याभ्याससंस्कारैरवश क्षिप्यते मनः । तदेव ज्ञानसंस्कारैः स्वतस्तरत्वेवतिष्ठते ॥
अज्ञानाभ्यासके संस्कारोंसे संस्कृत हुआ मन वशमें नहीं रहता । अत एव वह इधर उधर भटकता फिरता है । किंतु ज्ञानके संस्कारोंसे संस्कृत होकर वही मन स्वयं ही आत्मस्वरूप में अवस्थित होजाता है ।
भावार्थ – मुमुक्षुओं को सबसे पहले श्रुतज्ञानका अभ्यास करना चाहिये । क्योंकि क्रमसे इसका पहले संस्कार होजाने पर ही स्वसंवेदन की प्राप्ति होती हैं । और उसके बाद आत्माको उस स्वसंवेदन के द्वारा शुद्ध चिद्रूपकी प्राप्ति होती है । एवमुक्षुओंको श्रुतका अभ्यास पहले करना चाहिये !
आत्मकल्याणकी सिद्धिके लिये मुमुक्षुओंको मति अवधि और मन:पर्यय ज्ञानका भी उपयोग करना चाहिये । यथाप्राप्त इन ज्ञानोंके द्वारा भी आत्मकल्याण में प्रवृत्त होना चाहिये; ऐसा उपदेश देते हैं:
क
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